- आचार्य मूसा खान अशान्त
- कविता / ग़ज़ल
चिराग़ कैसे हवा का शिकार करते हैं
जो बेक़सों पे सितम बार-बार करते हैं,
वक़ारे इंस को वो दाग़दार करते हैं।।
जो बेक़सों पे सितम बार-बार करते हैं,
वक़ारे इंस को वो दाग़दार करते हैं।।
लिख रही है आज कविता,
लिपि,
अजी !
चुपचाप रहिए |
कभी कोशिश जो तेरी मंज़िले नाकाम तक पहुंचे
तभी मुमकिन है तेरी आरजू अंजाम तक पहुँचे
चमकती धूप को तुम अपनी आँखों में बसा रखना
जरूरी तो नहीं हर एक नज़ारा शाम तक पहुंचे
न तुम देख पाये ना हम देख पाये
ज़माने के हम ना क़दम देख पाये
बहुत देखी दुनिया बहुत देखे मेले
ऐ दुनिया तुझे कितना कम देख पाये
जिस सफर में साथ तुम थे, रहबरी अच्छी लगी
दिल गया तो क्या गया ये रहज़नी अच्छी लगी
उसने मेरी ग़लतियों पर जब कभी डाँटा मुझे
फ़क़्र है माँ आज, तेरी बेरुख़ी अच्छी लगी
हम भी इक धूप के फूल हैं
दिन ढलेगा, बिखर जायेंगे
एक डोली पे सज-सज के हम
अर्थियों पर उतर जायेंगे।
यह मेरुदंड है न!
जिस पर हम खड़े हैं
वह टूट गया है..
हमसे रूठ गया है
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