जिस सफर में साथ तुम थे, रहबरी अच्छी लगी
दिल गया तो क्या गया ये रहज़नी अच्छी लगी
उसने मेरी ग़लतियों पर जब कभी डाँटा मुझे
फ़क़्र है माँ आज, तेरी बेरुख़ी अच्छी लगी
जिन अँधेरों से मिरी पहचान करवाती रही
फिर उजाले दे गयी, वो तीरगी अच्छी लगी
ऐ, नगर तू ने अता की एक अच्छाई मुझे
गाँव में जो थी गुज़ारी ज़िन्दगी अच्छी लगी
जिस अमीरी की वज्ह से खो दिये अपने सभी
आज सब अपने मिले तो मुफ़लिसी अच्छी लगी
हक़-बयानी से अमूमन लोग क़तराने लगे
झूठ ने पायी सज़ा तो मुन्सिफ़ी अच्छी लगी
आइने का दर्द, मेरा दर्द बावस्ता हुए
उम्र की जो थी कहानी, अनकही अच्छी लगी