आज अचानक मेरे मित्र का वीडियो कॉल आया और मैं सो कर भी नहीं उठी थी इसलिए मैंने फोन नहीं उठाया। लेकिन जब देखा तो खुद को रोक नहीं पाए और रजाई को पलटकर ब्रश करके तुरंत नीचे हॉल में जाकर उन्हें फोन लगा ही दिया।
काफी दिनों बाद शायद हम लोग आपस में बात करने जा रहे थे। दिन नहीं कहेंगे काफी साल बाद मैंने फोन किया तो पता चला उनके यहां रात के 4:00 बज रहे हैं! पहले सोचा फोन रख दूं फिर सोचा नहीं इसी को तो मित्रता कहते हैं! बहुत दिनों के बाद बात कर रहे हैं तो बात कर ही ली जाए! शायद मन हल्का हो जाएगा।
वैसे तो मैं काफी संकोची स्वभाव की हूं लेकिन आज काफी दिल भारी था वजह कुछ पर्सनल थी। बात करने के लिए जरूरी सा लगा। कुछ गिलों और शिकवों के उपरांत बातों में उन्होंने कुछ ऐसा बताया कि जिसे जानना मेरे लिए अच्छा था। उन्होंने कहा जानती भी हो तुम कैसी हो? नहीं मुझे क्या पता? मैं बोली। वह बोले कि "मैं अपने आप में एक संदिग्ध कल्पना कर बैठती हूं और खुद ही मूरत बनाकर खुद ही उसमें आत्मा फूंक देती हूं जो कि उचित नहीं है।"
एक पल को मैं सोच में डूब गई, क्या मेरी अपनी सोच आसमान को चीर कर वहां पहुंच जाती है जहां आम आदमी नहीं पहुंच पाता और इसीलिए मैं अपने आप को अक्सर अकेली पाती हूं? आम लोगों से जुड़ ही नहीं पाती! स्वयं से पूछा भी करती हूं... क्या मेरी गलती है इसमें? तो पता चलता है कुछ भी तो नहीं! क्योंकि मैंने स्वयं को तो नहीं बनाया? एक व्यक्तित्व बनाने में बहुतों का हाथ होता है! माता-पिता, समाज, परिवार, मित्र और न जाने कौन-कौन? ईश्वर को कैसे भूल जाऊं? सबसे बड़ा हाथ तो उसी का होता है! चमत्कारिक हाथ और मैं पाती हूं कि मैं कुछ अजीब सी ही हूं! बिना कहे सब सोचती हूं और उस सोच में इतनी सूक्ष्म बातें सोच लेती हूं कि मुझसे किसी को जरा सा भी धक्का ना लगे, भले मैं उसमें स्वयं को सोचती रह जाऊं! मगर दूसरे को कष्ट नहीं होना चाहिए! वह भी मेरे कारण! बस यही लागू करके देख लेती हूं, उस चरित्र के लिए जिसे मैं पसंद करती हूं कि मैं उसे गलती से भी तकलीफ तो देने नहीं जा रही हूं? बस हट जाती हूं!
बस यही इस मित्र के साथ भी हुआ। बहुत पसंद करती थी, बहुत गहरी दोस्ती का एहसास हो गया था दिल को! दिल को ही क्यों दोनों के दिल को एहसास हो गया था! किंतु मन और मस्तिष्क कहीं पर यह भी महसूस कर रहे थे कि वह किसी और का हंड्रेड परसेंट पहले से ही है। बस फिर क्या था, दूर हो गए! उसे यह बात रास ना आई! लेकिन मुझे इस बात का एहसास था कि इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते! इतना ही नहीं -_"बैर, खैर, खासी, खुशी, लोभ, प्रीत, मद, पान यह छिपाए से ना छुपे जाने सकल जहान, "यह भी तो पढ़ चुके हैं तो मेरी आंखें कैसे बंद रहती? एक तरफ बिहारी को भी पढा है कि उस तरफ जाना ही क्यों जिसके नैनों में कोई और बसता है वहां तुम्हारे लिए जगह कहां बन पाएगी? बस इन्हीं तमाम उधेड़बुन के बाद मित्रता को हृदय में रखकर एक ऐसा ताला लगा दिया कि बस अब उसे इस जन्म में तो नहीं खुलना है! लेकिन तभी फोन पर बात करते-करते मेरा मित्र कह गया कुछ! वह है बहुत जबरदस्त भी हर मामले में गजब का मित्र है! एहसास दिला गया कि मैं गलत हूं! अपने आप तस्वीरें बनाती हूं और उसे स्वयं ही जामा पहनाकर रख लेती हूं जो कि उचित नहीं है!
वह मेरी दोस्ती को पसंद करता है किंतु मैं उससे एकदम अलग हूं, वह आज तक समझ ही ना पाया! वह जहां एकदम खुलापन लेकर जीवन जीता है मैं एकदम विपरीत हर बात को महसूस करके पूरा दिल के अंदर उतारकर रिश्तो को जीती हूं क्योंकि मुझे बचपन से समझाया गया है... ईमानदारी हर चीज में होनी चाहिए, सत्य हर बात में होना चाहिए और फिर क्या मैं जब जान जाऊं कि यह ऊपरी रिश्ते हैं, दूर से रिश्ते कभी चलते नहीं! रिश्ते सदैव वह कामयाब होते हैं जो नजदीक होते हैं। मुझे बताने की जरूरत उसे नहीं थी, मैं स्वयं समझ गई थी जो उसके नजदीक है वही उसे जीत चुका है! क्योंकि समय-समय पर काम वही आएगा जो पास में है, दूर वाला तो बस हाथ मलता रह जाएगा! इमरोज़ की एक पेंटिंग पर कहीं मैंने पढ़ा था, "लव इज स्टेट बीइंग ऑफ टुगेदर्नेस" अब और क्या चाहिए? क्यों मुझे किसी के उत्तर का इंतजार रहे? क्या वास्तव में जरूरी है कि कोई बोले! रिश्ते तभी जीवित होंगे? नहीं, मेरे हृदय ने कहा, तू तो उसकी पहली निगाह में ही यह जान गई थी कि जिसकी कल्पना मैंने दिन रात की थी यह वही है लेकिन स्थिति ठीक अमृता प्रीतम की तरह थी जो चांद में हमेशा अपने राज को देखती रही! मैं भी अपने हृदय में सोचती रही और अचानक आंखों के सामने उनका आ जाना तकदीर ही थी लेकिन एक तकदीर यह भी थी कि आसमान के चांद और धरती पर खिले फूल का साथ कभी नहीं होता? वह आसमान का रौशन सितारा मेरा मित्र और मैं जमीन पर खिली एक कली के समान! खुशबू बिखेरने को तैयार मगर सितारा इतनी दूर बुलंदी पर कि बस सोचकर ही खुश हो लेती हूं! ठीक है दोनों को विश्वास है अपनी-अपनी मित्रता पर! यह भी तो कुछ कम नहीं! दिल में इस "असंदिग्ध लौ" को जलाए रखना भी कोई आसान बात तो नहीं है! मित्र जहां भी रहना खुश रहना मेरी अंतरात्मा की यही ख्वाहिश है और ईश्वर से प्रार्थना भी।