भिलांचल झाबुआ का छोटा सा कस्बा रामनगर ,जहाँ चार खम्भो पर टिकी बांसों की झोपड़ी में सोमला अपने बुजुर्ग माता पिता के साथ रहता था। सोमला जवान था किंतु निरक्षर जिसे अ अनार का भी याद नहीं।अपनी झोपड़ी के समीप उसका छोटा सा खेत था।
वह खेत ही उसकी और उसके बुजुर्ग माता -पिता की रोजी रोटी थी ,किन्तु विगत दो साल से पानी इस गाँव में गिरा ही नहीं।
खेत बंजर एवं एकदम सूखा था। सोमला के लिए खुद का और माता-पिता का पेट भरना मुश्किल ही था। जैसे तैसे गाँव मे छोटा मोटा कोई काम किसी का कर देता और बदले में ले आता, कभी -कभी तो उसके माता पिता को भी एक समय खाना मिलता। शाम भूखा ही सोना पड़ता।
इसी बीच सोमला के पिता का स्वर्गवास हो गया। पिता का स्वर्गवास उसके लिए समस्या बन गया ।पिता को जलाने को लकड़ी नहीं थी। जंगल के पेड़ों को वह काट नहीं सकता था।
एक बार अनजान सोमला ने पेड़ को काट लिया था उसके बाद जंगल खाते के अधिकारी ने उसे खूब पीटा था और जेब मे रखी दस दिनों से दस रुपये की मैली कुचली नोट भी उससे निकाल ली थी।
आखिर सोमला क्या करता
बिवश सोमला ने अपनी झोपड़ी को तोड़ दिया और उसकी सारी लकड़ियों से पिता का दाह संस्कार किया और माँ को ले खेत में सूखे पेड़ के नीचे टाट बिछाकर लेट गया। उदास खमोश आखों से कभी आसमान को निहारता तो कभी, सिरहाने लेटी नींद से कोसो दूर माँ का बुझा, खमोश चेहरा देखता जो उसे जिन्दा लाश सा लग रहा था।