अनेक बार "दुक्खम-सुक्खम" पढ़ने की इच्छा हुई क्योंकि जिस कृति को व्यास पुरस्कार मिला वह निश्चित ही अद्भुत होगी इसकी उम्मीद थी। गूगल पर सर्च की नहीं मिली तो ममता कालिया दी से ही पूछा। पता चला प्रतिलिपि डॉट कॉम पर है। पढ़ना शुरू किया तो लगा ये तो मेरी कहानी शुरू हो गई है।
लड़की के जन्म पर उपेक्षा और लड़के के जन्म पर खुशी। फिर कथा जैसे जैसे आगे बढ़ती रही रोचकता बढ़ती रही। लेखिका भिन्न-भिन्न स्त्री-पुरुषों के जीवन, चरित्र-प्रकृति का हर पहलू, उसके मन के भीतरी कोने में दबा दी गईं परतें, सौम्यता, विनम्रता, सरलता, सहजता से उघाड़ती दिखाती और तह लगाकर रखती गई।
दुलार से दुत्कार तक और कैद से उड़ान तक, ख्वाब से हक़ीक़त तक, इच्छा से अनिच्छा तक, मोह से विरक्ति तक, विरक्ति से फिर मोह तक, भाव से भावशून्यता तक, गुलामी से आजादी तक, कविता से अकविता तक, निवेश से ब्याज तक, उपेक्षा से पश्चात्ताप तक, परवरिश से उड़ान तक कुछ भी तो नहीं छूटा जो कथा में समाहित न हुआ हो। स्त्री, पुरुष, शिशु, युवा, वृद्ध सबकी जीवन से जद्दोजहद, सुख-दुख गिले शिकवों का लेखा जोखा जैसे किसी खूबसूरत कथा नहीं राग में पिरो दिया गया लगता है। पढ़ने वाला उसे सुनना बन्द नहीं कर पाता। अनेक रोचक किस्से जुड़ते जाते हैं। विद्यावती, लीला, इंदु, भग्गो, उमा, प्रतिभा, मनीषा, कांता, हर स्त्री पात्र अमिट छाप छोड़कर जाता है। पुरुष चरित्रों का इतनी ईमानदारी से मनोवैज्ञानिक चित्रण अद्भुत लगा। जैसे सभी पात्रों के मन-जीवन का नन्हे से नन्हा कौना भी लेखिका की आँख से छिप नहीं पाया। सभी चरित्र जैसे आसपास ही रोज मिलते हैं। सबसे अनोखी बात कथा में कोई खलनायक ही नहीं है। शीर्षक सार्थक ही लगा जीवन भी इस उपन्यास की तरह दुख -सुख का लेखा जोखा ही है। स्त्री ही बंधती-रुकती नहीं पुरुष भी बंधता रुकता है। गुलाम स्त्रियों का भी देश की आजादी में बहुत बड़ा योगदान है। जीवन की यही नियति है बताते हुए उपन्यास खत्म हो जाता है। जैसे कोई सुमधुर गीत जिसे सुनने में मजा आ रहा था। हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह ही लगा। कृति सार्थक, उत्तम, बेजोड़ है जिसे पढ़ते हुए रुका नहीं जाता। खत्म होने पर भी पाठक उसके पात्रों में फसा रह जाता है।
भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों, भावनात्मक आघातों, समर्पण, स्त्री-पुरुष के संघर्षों, संवेदनाओं को ब्रज भाषा में खूबसूरती से गूंथा गया है। रचना मर्मस्पर्शी है फिर भी पढ़ते हुए पति-पत्नी के आपसी वार्तालाप से कहीं- कहीं हँसी फूट पड़ती है। एक स्त्री लीला तिहाजू अधेड़ पुरुष से विवाह करके भी उसी के प्रति समर्पित हो जाती है। जरा सी चंचलता की सजा तिहाजू अधेड़ से शादी करने के रूप में झेलनी पड़ती है। स्त्री ससुराल में इतने दुख झेलती है कि उसकी मानवीयता सूख जाती है। गुलाम स्त्रियाँ बगावत कर आजादी का परचम उठाकर चल देती हैं। देश आजाद हो जाता है मगर वे वहीं की वहीँ रह जाती हैं। एक पुरुष मनपसंद स्त्री के प्रेम पाश में बंधता है मगर खुद ही नैतिकता के नाते आत्ममंथन कर कदम पीछे खींच लेता है। दूसरी तीसरी पीढ़ियों की कड़ियाँ कैसे पहली पीढ़ी से टूटती जुड़ती हैं। बहुत कुछ है उपन्यास में जो स्त्री के करियर के लिए एक रिस्क लेकर उठाए पहले कदम के साथ समाप्त होता है।
अद्भुत, बेजोड़, उत्कृष्ट, असाधारण के अलावा कह भी क्या सकती हूँ? आदरणीय लेखिका को इतनी सुंदर कृति के लिए हार्दिक साधुवाद बधाई।
इससे बेहतर अंत हो भी नहीं सकता था। धन्य हुई पढ़कर
अद्भुत रचनाकार को नमन