आशाओं के बादल सिरजे
नभ के आँगन में
उम्मीदों की पड़ीं फुहारें
पतझड़ जीवन में।
जीवन राग सुनाए धरती
अंबर कान धरे
हरियाली की बजे पखावज
पोखर-ताल भरे
रिमझिम-रिमझिम बरसा सावन
जैसे गीत झरे
नवजीवन का ले संदेशा
भेजे जन-जन में।
उम्मीदों की पड़ी फुहारें..
रूखे-सूखे अधरों की क्या
प्यास जगानी है
या फिर जल-थल,गगन एक कर
आस बुझानी है
बादल की अब यह माया भी
हुई अजानी है।
हानि-लाभ,सुख-दुख की छाया
मानव चिंतन में।
उम्मीदों की पड़ी....
बाबा खेत नहीं जाते हैं
अम्मा रोती है
घर के मयखाने में अपने
दुखड़े धोती है
हल औ बैल बेच कर भी क्या
खेती होती है?
चमत्कार को सभी तरसते
अब के सावन में
उम्मीदों की पड़ी....