कई महीने से रखी आदरणीय वेद प्रकाश "वटुक" की पुस्तकें पढ़ना चाह रही थी। मगर व्यस्त रही। आज उनकी एक कृति "शहीद न होने का दुख" पढ़ी। वेद प्रकाश 'वटुक' जी के पास कल्पनाओं का बहुत बड़ा आकाश है।
लघुकथाओं में पाठक को बांधे रखने की पूर्ण क्षमता है। नए विषयों का प्रयोग है। शिल्प में तो निपुण हैं ही। शीर्षक लघुकथा का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं । जो पाठकों को एक संकेत सा देता है, आकर्षित करता है, अप्रतिरोध्य है, रूपरेखा से सचेत रहते हुए वे पाठक को वास्तविकता से बांधते हुए जोरदार समाप्ति के साथ अपनी लघुकथा खत्म करते हैं। पात्र, समायोजन, कथानक, द्वन्द ,समाधान सब पूर्ण भूमिका में हैं। सबसे बड़ी बात हर लघुकथा एक बार पढ़ने के बाद पाठक को याद रहती है। किसी भी लघुकथा का वृत अधूरा नहीं मिला। पात्र की व्यथा, भय, विजय, सपने सभी से पाठक जुड़ता चला जाता है। पाश्चात्य संस्कृति से जुड़े पात्र बहुत हैं। उनकी लघुकथाएँ पढ़ना वास्तव में सुखद है। ऐसी पुस्तकें सरकार को पाठ्यक्रम में लागू करनी चाहियें।
"शहीद न होने का दुख" लघुकथा में तिरष्कृत पति है जो कैंसर का मरीज है। पता चलने पर अचानक कीमती और प्रिय हो जाता है एक प्रतिशत बचने की आशंका के बावजूद जब बच जाता है दुगने वेग से उसका तिरस्कार फिर शुरू हो जाता है। लघुकथाओं में जीवन का मार्मिक सत्य झकझोरता है। कहीं-कहीं एक विचार मनुष्य का पूरा जीवन तबाह कर डालता है या बदल डालता है। लघुकथाओं में विरोधाभासी संस्कृतियों का अद्भुत चित्रण है। लेखक का लेखन स्वांत सुखाय है। पुस्तक पर आई.एस.बी.एन. नम्बर न होना अखरता है। ये प्रकाशक की खामी है। दो दर्जन से अधिक कृतियों के रचयिता वेद प्रकाश "वटुक "जी की पुस्तक पढ़ना एक उपलब्धि सरीखा है।
हिन्दी में उत्कृष्ट लेखन हो रहा है। उसका मूल्यांकन नहीं हो रहा है। उसे बच्चो की पहुँच में लाने वाली सरकार नहीं है। पुस्तकें श्रेष्ठ नागरिक का निर्माण करती हैं। आज नागरिक के चारित्रिक पतन का कारण ये भी है वह पुस्तकों से दूर है। उसे बचपन में बोझिल अनुपयोगी पुस्तकों में बजाय रुचि पूर्ण सदुपयोगी साहित्य पढ़ने की लत लगाने की जरूरत है।
खूबसूरत पुस्तकें भेजने के लिए लेखक का साधुवाद। "कश्मीर हमारा है" लघुकथा में एक रुपये के लिए गिड़गिड़ाती मगर बिना मेहनत के वही एक रुपया न लेती कश्मीरी की अभाव कथा मन चीर देती है। "कबिरा चलो विदेश में "सवा अरब लोगों के लिए अच्छा बीज, स्वच्छ पानी, माटी के मकान के लिए लड़ती समाज सेवी आत्मा को भिखारी कहकर बाहर निकाल दिया जाता है और अरबों अरब रुपये बनाने छिपाने की योजनाएँ चलती रहती हैं। बाबू तक अपने अपने स्वार्थ के लिए कंकालों के अधिकार नोचने में व्यस्त हैं। बच्चो में कहाँ से जगेगी संवेदना। माँ बाप उन्हें नोट छापने की मशीन बनाने में व्यस्त जो हैं। सभ्यता के अंधेरे में मनुष्यों की आत्माएँ कैसे विलीन हो रही हैं ये दिखाती है।
113 लघुकथाएँ 113 उपन्यासों के बराबर हैं क्योंकि 113 उपन्यास कोई पढ़ेगा नहीं।