हिंदी की प्रगतिशील कविता भारतीय सामाजिक अंतर्विरोध से पैदा होकर निरंतर गतिशील यथार्थ और परिवर्तित राजनीतिक स्थितियों के घात प्रतिघातों से उत्पन्न हुई है। मुक्तिबोध ने इन घात-प्रतिघातों को बहुत नज़दीक से महसूस किया था। उनकी कविताओं में इसकी गूंज़ हमें बराबर सुनाई देती है।
समाज के यथार्थ चित्रण के लिए कवि को जटिल से जटिल समस्याओं को सरल और मानवीय भावों में उतारकर आम लोगों के सामने लाना पड़ता है। मुक्तिबोध ने इस संबंध में कहा है कि कविता के भीतर की सारी नाटकीयता वस्तुतः भावों की गतिमयता है। भावों की इस गतिमयता को मुक्तिबोध ने कहीं से उधार नहीं लिया, बल्कि वह तो उनके अनुभव के आत्म-विस्तार की उपज है। मुक्तिबोध हमेशा अनुभव और विचार के स्तर पर सरलीकरण का विरोध करते रहे। उनके अनुसार जीवन सत्य का सरलीकरण करना मुश्किल तो जरूर है, लेकिन आत्म-निजता के समय इसका सरलीकरण करना उतना ही अपेक्षित है। मुक्तिबोध 1935 से लगातार साहित्य सृजन में रत थे, लेकिन साहित्य में उनको वो स्थान नहीं मिल सका, जिसके वह हकदार थे। 1943 में तारसप्तक में शामिल होने के बाद भी उनके महत्त्व को ठीक से रेखांकित नहीं किया गया। मुक्तिबोध का सही मूल्यांकन उनकी मृत्यु के बाद हुआ। उसके बाद उठी मुक्तिबोधीय साहित्यिक लहर में बड़े-बड़े मठ बह गए। मुक्तिबोध उसके बाद सबसे जरूरी कवि बन गए। उन पर अनेकों शोध कार्य हुए। जिससे मुक्तिबोध के अनेक पक्ष पाठकों के सामने आये।ऐसा ही एक पक्ष है- ऐन्द्रिकता। मुक्तिबोध के साहित्य में ऐन्द्रिकता का विशेष महत्त्व है। इस विषय के महत्त्व को कवि और आलोचक विनय विश्वास ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक "ऐन्द्रिकता और मुक्तिबोध" में रेखांकित किया है। इस विषय के अध्ययन की आवश्यकता को लेखक ने पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट कर दिया है। उनके अनुसार, "मुक्तिबोध की ऐन्द्रिकता बताती है कि उनका काव्य-संघर्ष जितना खरा था, उतना ही सक्षम। इसका अध्ययन वस्तुतः उनके संवेदनात्मक उद्देश्य से रचना-संसार और रचना-विन्यास के रिश्तों का अध्ययन है। यथार्थ की पुनर्रचना के लिए उन्होंने जो भाववादी शिल्प अपनाया, वह उनकी अंतर्वस्तु का सबसे स्वाभाविक रूप था। वे अन्तर्जगत के बड़े कवि थे। यह अन्तर्जगत जटिल था और फैंटेसी इसका स्वाभाविक रूप। इसे इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए कि यह सामाजिक लक्ष्य, के व्यक्तिगत लक्ष्य में रूपांतरण की सर्जनात्मक प्रक्रिया का परिणाम है। ऐन्द्रिकता का अध्ययन प्रकारांतर से इस प्रक्रिया के घटित होने का अध्ययन है।"
लेखक विनय विश्वास ने इस पुस्तक में ऐन्द्रिकता को मुक्तिबोध के साहित्य से जोड़ते हुए तीन भागों में बांटा है। पहला भाग 'ऐन्द्रिकता और साहित्य' है। जो ऐन्द्रिकता, साहित्य और पाठकों के अंतर्संबंधों पर केंद्रित है। इस अंतर्संबंध को लेखक ने ऐन्द्रिकता के धरातल परखा है, ’मनुष्य,विवेक को बरतते हुए बाहरी प्रकृति को भी बदलता है, भीतरी को भी। कविता अपने सर्जक और पाठक-श्रोता, दोनों की भीतरी प्रकृति को बदलती है। भीतरी प्रकृति मनुष्यता का स्रोत है। सूख गया तो कविता उसे सींचती, उर्वर बनाती है। उर्वर हो तो और अधिक उर्वर, और अधिक मानवीय बनाती है। यह कविता की सार्थकता है।इसे अर्जित करने की प्रक्रिया ऐन्द्रिकता के सजग उपयोग से संभव होती है। ये उपयोग रचनाकार अपने अनुसार करता है और पाठक या श्रोता अपने अनुसार। दोनों उपयोगों के बीच एक रिश्ता बनता है, जो रचना-क्षमता को प्रभाव-क्षमता में रूपान्तरित करता है। यह प्रभाव-क्षमता ही रचनाकार और पाठक या श्रोता, दोनों के लिए रचना की सार्थकता है’। किसी कवि की कविता में ऐन्द्रिकता को देखना उस कवि कवि-कर्म की सक्रियता को देखना है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि 'अलग-अलग कवियों की अलग-अलग ऐन्द्रिकताएं होती हैं। जहाँ अज्ञेय की ऐन्द्रिकता प्रकृति का आस्वाद है। भोग है। सुख है। वहीं मुक्तिबोध की ऐन्द्रिकता में प्रकृति का भोग कम इस्तेमाल ज़्यादा। मुक्तिबोध की ऐन्द्रिकता मनुष्य की तरह अपने समय के यथार्थ से भी नालिनालबद्ध है। यह ऐन्द्रिकता उनकी कविताओं के साथ-साथ उनके गद्य में भी मौजूद है। बताती हुई कि यह एक सर्जक, एक कवि का गद्य है'।मुक्तिबोध का पूरा साहित्य अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ आगे बढ़ता है। ये पुस्तक उन सभी पड़ावों को व्याख्यायित करती चलती है।
इस पुस्तक के पहले भाग में ‘ऐन्द्रिकता और साहित्य’ की विस्तार से व्याख्या की गई है। मुक्तिबोध के साहित्य को समझने के लिए लेखक ने ऐन्द्रिकता के रूप में ऐसा टूल्स पाठकों के सामने रख दिया है। जिसके माध्यम से मुक्तिबोध के साहित्य के आंतरिक परतों को भी खोलने का काम बखूबी किया गया है और आगे किया भी जायेगा। इस पुस्तक का दूसरा भाग है "ऐन्द्रिकता और मुक्तिबोध की कविताएँ"। मुक्तिबोध ने जीवन और साहित्य के संघर्ष को अपनी कविता की अंतर्वस्तु में ढाला। लेखक ये बताता चलता है कि ऐन्द्रिकता के सजग प्रयोग से इस अंतर्वस्तु को रूपाकार मिलता है। ऐन्द्रिकता के अनेक रूपों में वैचारिकता का बहुत महत्त्व है। रूप, रस, स्पर्श, ध्वनि और गंध ही ऐन्द्रिकता को मूर्त रूप देते हैं। अब सवाल ये उठना लाज़मी है कि किसी रचनाकार के रचना-संसार में इन तत्त्वों का प्रयोग कैसे और कितना हुआ है? मुक्तिबोध का कविता-संसार जीवन के ऐन्द्रिक रूपों से बना है। लेखक ने इस पुस्तक में रेखांकित किया है कि भावों को ऐन्द्रिक रूप देने के क्रम में मुक्तिबोध के यहाँ पाँच तत्त्वों में सबसे ज़्यादा उपयोग पृथ्वी का हुआ है। मुक्तिबोध की कविता के बहाने लेखक ने ऐन्द्रिकता के अनेक पहलुओं को उद्घाटित किया है। उनके अनुसार,‘ऐन्द्रिकता प्राकृत होने का माध्यम है। प्राकृत होकर रचनाकार प्राकृतिक रचना-संसार जुटा सकता है। ऐन्द्रिकता रचना को रिक्त होने से बचाने के साथ उसे बनावटी होने से भी बचाती है। यही वजह है कि मुक्तिबोध का रचना-संसार बनावटी नहीं है बल्कि वह तो प्राकृतिक है। ऐन्द्रिक है। भरा-पूरा है। सहज है। जीवंत है। प्रगतिशील हिंदी कविता पर लगे सपाटबयानी के आरोप का प्रतिकार है’। इस पुस्तक के आने के बाद मुक्तिबोध की कविताओं के पाठ को ऐन्द्रिकता ने अलग तरह के पाठ में बदल दिया है। मुक्तिबोध की कविताओं को देखने का अलग एंगल ऐन्द्रिकता ने प्रदान किया है। लेखक ने इस पुस्तक में अनेक कविताओं- 'एक अभूतपूर्व विद्रोही का आत्मकथन', 'एक अंर्तकथा', 'मुझे कदम-कदम पर', 'चकमक की चिनगारियाँ', 'चाँद का मुँह टेढ़ा है', 'कहने दो उन्हें जो कहते हैं', 'ब्रह्मराक्षस', 'अंधेरे में' और लकड़ी का रावण' आदि का ऐन्द्रिक पाठ प्रस्तुत किया है। किसी भी रचनाकार के रचना-संसार को समझने के लिए ऐन्द्रिक-पाठ की क्या महत्ता है? इसको इस पुस्तक में स्पष्ट किया गया है, ‘ऐन्द्रिक पाठ से आशय कोरे बिम्ब-संयोजन का वर्णन नहीं। बिम्ब निःसंदेह ऐन्द्रिक होते हैं लेकिन जो कुछ भी ऐन्द्रिक हो, वह सब कुछ बिम्ब (अलग से सुंदर लगने या प्रभावित करने वाला चित्र) ही नहीं होता। बाहरी या भीतरी यथार्थ का वर्णन भी होता है। संवाद भी होता है। सपाट लगनेवाला भरपूर कथन भी होता है वह। कविता का ऐन्द्रिक संसार अनेक रूपों में सामने आता है। इन रूपों का विवेचन यहाँ इस नीयत से किया जा रहा है कि मुक्तिबोध की कविताएँ और स्पष्ट हों, और ज़्यादा, और आसानी से समझ आएँ, उसकी संपन्नता और उजागर हो’।मुक्तिबोध की कविताओं में चाक्षुष संवेदनाओं का प्रयोग बहुत हुआ है। इनकी कविताओं में रूप, रस, रंग, स्पर्श, ध्वनि और गंध की महत्त्वपूर्ण भूमिका का लेखक ने बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया है।
मुक्तिबोध के समूचे व्यक्तित्व को समझने के लिए जितना उनका काव्य महत्त्वपूर्ण है, उतना ही गद्य। इस पुस्तक का तीसरा भाग- "ऐन्द्रिकता और मुक्तिबोध का गद्य" इसी बात को इंगित करता है। इस भाग में कथा, समीक्षा और एक साहित्यिक की डायरी को केंद्र में रखकर, ऐन्द्रिक पाठ के माध्यम से, इन्हें दूसरे कोणों से समझने का प्रयास किया गया है। मुक्तिबोध के यहाँ गद्य और पद्य एक दूसरे के संपूरक हैं। इनके अंतर्संबंधों से ही मुक्तिबोध की मुकम्मल छवि बनती है। इस पुस्तक के माध्यम से मुक्तिबोध की कहानियों में आये अनेक ऐन्द्रिक स्थलों की पहचान लेखक ने की है। मुक्तिबोध की कहानी 'जिन्दगी की कतरन' का एक वाक्य देखिए- "मध्यवर्गीय समाज की साँवली गहराइयों की रुँधी हवा की गन्ध से मैं इस तरह वाक़िफ़ हूँ जैसे मल्लाह समुन्दर की नमकीन हवा से"। लेखक ऐसे ऐन्द्रिक स्थलों की ओर इशारा करता है, 'यह मुक्तिबोध द्वारा कहानियों में ऐन्द्रिकता के सक्षम उपयोग की मिसाल तो है ही, एक सर्जक के रूप में उनकी स्वाभाविक क्षमता की सूचना भी है’। ऐन्द्रिकता के ऐसे अलग अंतर-पाठों से इस लेखक ने मुक्तिबोध की कहानियों को समझने के अलग रास्ते खोल दिये हैं। क्योंकि ऐन्द्रिकता न केवल कहानी की पठनीयता में इज़ाफ़ा करती बल्कि उनमें आये अप्रत्यक्ष लेखकीय अनुभवों को भी खोलती चलती है। मुक्तिबोध की कथा-स्थितियाँ गतिशील बिम्बों के रूप में पाठकों के सामने आती हैं। इस भाग में 'अँधेरे में', 'समझौता', 'पक्षी और दिमाक', 'क्लॉड ईथरली' और 'जंक्शन' आदि कहानियों को समझने के लिए ऐन्द्रिकता के अन्तरपाठीयता का उपयोग बहुत बारीकी से किया गया है। समझौता कहानी में ऐन्द्रिकता की भूमिका की तरफ लेखक ध्यान दिलाता है- 'यह एक ऐसी कहानी है, जिसके (सैद्धांतिक विषय-वस्तु से सरोकार रखने के कारण) बनावटी होने की आशंका बहुत थी पर कहानी के भीतर कहानी के शिल्प और ऐन्द्रिकता के सजग उपयोग से उसे बचा लिया गया।' चाहे पक्षी और दीमक कहानी में आये पक्षी की स्वादलोलुपता का ऐन्द्रिक बिंब हो, या ओवरकोट कहानी में आये ओवरकोट और बिस्तर की गरमाई का ऐन्द्रिक संवेदन हो, सभी कहीं न कहीं कहानियों की गतिविधियों को गतिमय बनाते हैं।
इसी भाग के दूसरे हिस्से में ‘मुक्तिबोध के समीक्षा-संसार’ को ऐन्द्रिकता के आईने में देखने का प्रयास लेखक ने किया है। मुक्तिबोध की कविताओं को समझने के लिए सबसे पहले उनके गद्य को समझना होगा। उनका गद्य न केवल पाठक को जागरूक करता, बल्कि कविता की गहराइयों में पहुँचने का हौसला भी देता है। मुक्तिबोध का गद्य अपने समय और साहित्य की सही पहचान से उपजा है। लेखक के अनुसार ऐन्द्रिकता के सफल प्रयोग से ही इस पहचान को अर्जित किया गया है। मुक्तिबोध की पूरी आलोचना-दृष्टि बहुत सारे मुद्दों से टकराती है। इन मुद्दों के सरोकार कहीं न कहीं जीवन और साहित्य से गहरे से जुड़े हैं। यही वजह है कि लेखक को मुक्तिबोध की पूरी आलोचना जीवंत नज़र आती है। इस जीवन्तता का मूल लेखक ऐन्द्रिकता में देखता है।
"एक साहित्यिक की डायरी" में ऐन्द्रिकता के बहुत सारे दृश्य बिखरे पड़े हैं। लेखक ने उन बिम्बों को इस पुस्तक में सक्रिय ऐन्द्रिकता के रूपों में ढालकर पाठकों के सामने रख दिया है। लेखक ने एक साहित्यिक की डायरी के ऐन्द्रिक-पाठ के माध्यम से मुक्तिबोध की आलोचना को नये ढ़ंग से विश्लेषित किया है। भाषा और ऐन्द्रिकता के अंतर्संबंधों की तरफ लेखक विनय विश्वास ने संकेत किया है कि ‘साहित्य का माध्यम है- भाषा। भाषा ऐन्द्रिकता से बनती है। बनती ही नहीं, ऐन्द्रिकता का सृजन भी करती है। उसकी अर्थवत्ता ही भौतिक संसार को अमूर्त ध्वनि-चिह्नों के द्वारा मूर्त कर देने में है’।
इस पुस्तक की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। लेखक ने भूमिका को बहुत रोचक शैली में लिखा है। आप पढ़ते समय इसकी भाव लहरियों में गोता लगाते-लगाते, कब मुक्तिबोध के साहित्य में प्रवेश कर जायेंगे, पता ही नहीं चलेगा। इस पुस्तक की भाषा छोटे-छोटे वाक्य विन्यासों से सजी है। ये छोटे छोटे वाक्य बिहारी के दोहों की तरह बड़ी अर्थवत्ता को लेकर चलते हैं। ये छोटे वाक्य भाषा को संप्रेषित करने में सफल हुए हैं। जिससे मुक्तिबोध की आलोचनात्मक पुस्तक भी आम पाठकों ले लिए सहज और सरल बन पड़ी है। इससे ये पता चलता है कि इस पुस्तक का लेखक भाषा के प्रति कितना सजग है। भाषा से वही लेखक खेल सकता है, जिसे भाषा की बारीकियों का पता हो। कवि और आलोचक विनय विश्वास भाषा की बारीकियों को अच्छे से समझते हैं। पूरी पुस्तक को पढ़ने के बाद बहुत कम भाषाई त्रुटियां आपको यहाँ मिलेंगीं। इस पुस्तक के माध्यम से मुक्तिबोध को समझने के नए रास्ते खुलेंगे। ऐन्द्रिकता जैसे नए विषय के माध्यम से मुक्तिबोध के साहित्य की समझ को विकसित करने का महत्त्वपूर्ण काम इस पुस्तक ने किया है। मुक्तिबोध पर काम करने वालों के लिए ये पुस्तक बहुत उपयोगी साबित होगी।"
- पुस्तक- ऐन्द्रिकता और मुक्तिबोध
- लेखक- विनय विश्वास
- प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण- 2018 मूल्य- 350