पृथ्वी अरबों साल से घूमते घूमते भी
कभी नहीं निकली हेबिटेबल जोन से बाहर,
सूर्य ने आज तक नही छोड़ी अपनी जगह
चंद्रमा आज भी काट रहा पृथ्वी के चक्कर
उसके अगाध प्रेम में।
कोई पेड़ कितना ही बड़ा हुआ
कभी नहीं निकला पृथ्वी के वातावरण से बाहर,
फल लगे तो बड़े से बड़ा पेड़
झुक आया जमीन की ओर,
खुले में बहती कोई नदी नहीं भागी उल्टे पैर
न ही कैद किया उसने अपना पानी।
घूमती धरती फैलते आकाश के बीच
अधिकतर चर अचर बंधे रहते हैं
प्रकृति के तयशुदा नियमों से
मनुष्य को छोड़कर।
मनुष्य घूमता है तो निकल जाता है
अपनों की जद से बाहर,
फैलता है तो समेट नहीं पाता खुद को
बड़ा होता है तो
निकल जाता सबके सरों से ऊपर
इतना ऊपर कि जमीन पर खड़े होकर भी
दिखाई नहीं देती उसे
अपने भी पैरों के नीचे की जमीन।
वह भूल जाता है कि
घूमते, फैलते या बढ़ते हुए
वह जहां पहुंच चुका है
वहां से उसे ही नहीं दिखते लोग बौने
लोगों को भी वह दिखाई देता है
बहुत बौना ही।।