फेंकता उद्दंड श्रद्धा को
सटी आँगन से रसोई में
द्वार की साँकल बजाकर दिन
है नहीं कुछ भी नियोजित, पर
ढल रहा
कैसी अहिंसा में
यह समय कितना परिष्कृत है
खोजता हल
भीड़-हिंसा में
तर्क आपस में विरोधी ले
हर बहस में चीखते स्वर से
आ रहा खुद को सजाकर दिन
एक हत्या का मुकदमा भी
तय न जब
अपराध कर पाये
पीड़ितों को न्याय की आशा
किस जगह पर
चीख-चिल्लाये
साक्ष्य जब आधे-अधूरे तब
हो रहा अभियुक्त अभिनन्दित
न्याय को ठेंगा दिखाकर दिन
जब वितर्कों की विरासत से
अर्थ औ' आशय
बदल जायें
फैलते विद्वेष के विष से
किस जगह जाकर
शरण पायें
जब सवालों के कहीं उत्तर
मिल नहीं पाते हवाओं से
चीखता तब तिलमिलाकर दिन