बाहर से लौट कर गेट खोला, तो भीतर कुछ पत्र पड़े। दो लिफाफे और बाकी पोस्ट कार्ड थे। पत्र जब चलन से बाहर हो चले हों, ऐसे समय में इन पत्रों का आना, मेरे लिये किसी नेमत से कम नहीं था। उन्हें उठाकर टेबल पर रखने लगी तो, एक पोस्टकार्ड ने मेरा ध्यान खींचा।
मैंने देखा उसके कोने पर हल्दी का निशान था। हल्दी का ये निशान। 'यानि ये विवाह का निमंत्रण है। जरूर ये हमारे गाँव से ही आया होगा।वरना आजकल तो इस तरह के निमंत्रण का रिवाज़ ही नहीं रहा। अब तो निमन्त्रण पत्र स्टेट्स सिम्बल हो गये हैं। निमंत्रण पत्र में भी कोई चाँदी की घण्टियाँ लगवाता है, तो कोई सोने के सिक्के।' सोचते हुये मैंने देखा। वह बड़की अम्मा का पत्र था। पत्र क्या था केवल तीन ही वाक्य थे उसमें -
बिटिया को शुभ आशीर्वाद।
तुम्हारे भाई का ब्याह है। जरुर आना बिटिया। इस खत को ही निमंत्रण समझना।
तुम्हारी अभागिन
बड़की अम्मा।
इस पत्र को पढ़ने के बाद शेष दोनों पत्र पढ़ने की याद ही नहीं रही। मन तो इन तीन पंक्तियों में ही उलझ कर रह गया था। अभागिन बड़की अम्मा!! माँ और अभागन? मगर उनके संदर्भ में शायद ये शब्द ही सटीक थे. मेरी आँखे अब विगत को खँगाल रही थीं -
कुछ भी तो नहीं मिला था उन्हें, जिसे वे अपना सौभाग्य कहतीं ! पत्नी बनकर भी उन्हें वो अधिकार, वो सम्मान तो मिला ही नहीं, जो मिलना चाहिए! उनके प्रेम और समर्पण के बदले मिली, तो बस घृणा और उपेक्षा! समाज से और परिवार से भी। पर ऐसा क्या किया था उन्होंने ? यही कि. अपने शराबी और ऐय्याश पति को छोड़ कर, ताऊ जी का हाथ थाम लिया था। क्या ये अपराध था ?
हाँ ! एक औरत अपना फैसला खुद ले ले? और वो भी ऐसा फैसला जो, समाज के लिये चुनौती बन जाय,तो ये अपराध ही तो है। सो सजा तो मिलनी ही थी। और सज़ा मिली थी उन्हें। परिवार से भी और समाज से भी। न S न! कोई शारीरिक दंड नहीं मिला था उन्हें, पर जो दंड मिला था वो चाबुक की मार से कम नहीं था। उनके तन पर तो कोई निशान नहीं थे। मगर मन वो छलनी हो चुका था। पूरी तरह से .खारिज़ कर दिया था उन्हें, समाज से और परिवार से भी। उनके विवाह को भी कहाँ स्वीकारा था लोगो ने। तभी तो उन्हें लोग उढ़री ' कहने लगे थे। 'उढ़री' यानि भागकर आयी ओरत। हलाकि वे भागकर नहीं आई थीं. बाकायदा कोर्ट मैरिज़ थी उनकी। मगर इस गाँव के लोगों के लिये उस विवाह का कोई महत्व् ही नहीं था। सो वे उढ़री शब्द के दंश को झेलने को विवश थीं। मगर आशचर्य तो ये था कि ताऊ जी से कभी किसी ने कुछ नही कहा! अगर ये अपराध था, तो अपराधी तो वे भी थे न! मगर वे पुरुष थे और हमारे समाज में पुरुष की तो कोई गलती होती ही नहीं।
फिर भी बड़की अम्मा ने कभी कोई शिकायत नहीं की। परिवार ने तो उन्हें कभी नहीं अपनाया था; पर उन्होंने सबको अपना लिया था। सबसे बहुत प्रेम करती थीं वे! मुझ पर तो उनका विशेष स्नेह था। मुझे भी वे बहुत अच्छी लगती थीं। मगर अम्मा को तो उनसे चिढ सी थी। जब भी मैं उनके पास होती, अम्मा मुझे वहाँ से बुला ले जातीं। और कहतीं -
"तू वोहके पास न जाया कर।"
"काहे? "
"ऊ अच्छी औरत नाही है."
"का ऊ गंदी हैं? पर ऊ त बहुत सुंदर हैं। तुमसे भी सुंदर।" भोलेपन से कही मेरी बात से वे बौखला जातीं और मुझे खूब मरतीं। मगर मैंने न उनके पास जाना छोड़ा और न ही अम्मा ने पीटना।
फिर विजय का जन्म हुआ। अब वे बहुत खुश थीं और ताऊ जी भी। मगर परिवार?परिवार तो और भी कँटीला हो गया था बिलकुल नागफनी जैसा। खासकर अम्मा। सो वे जब तब उनसे उलझ ही जातीं थीं। उनके लड़के का हक जो मारा गया था। अब तक ताऊ जी की जायजाद का वही तो वारिश था। मगर अब तो विजय की विजय हो चुकी थी। आश्चर्य ! समाज को विजय से भी कोई परहेज़ नहीं था। वो किसी उढ़री का नहीं , ताऊ जी का बेटा था। सो उसकी बरही पर सारे जँथी वार का भोज हुआ था। मगर परिवार ?न तो उसकी नज़र बदली और न ही नज़रिया।
***
मेरा विवाह हो रहा था। सोहगइली खिलाने के लिये सुहागिनें बुलाई गई थीं। गाँव भर की औरतें वहाँ थीं, अगर कोई नहीं था, तो बड़की अम्मा। होतीं भी कैसे? अपशकुन जो हो जाता। सो विवाह की किसी भी रस्म में उन्हें शामिल नहीं किया गया था। मेरी विदाई का समय था, सारा गाँव एकत्रित था, मगर वे वहाँ भी नहीं थीं और मेरा मन व्याकुल था उनसे मिलने को। सो मैं उनके कमरे की और बढ़ ही रही थी कि -
"बौरी भई हो का? ई सुभ घड़ी म ओहर कहाँ--------?" कहते हुये अम्मा मेरे सामने आ खड़ी हुई थीं। उनकी आँखों से जैसे अंगारे बरस रहे थे। और उनके उस अधूरे वाक्य में छिपा अर्थ बींध गया था मुझे। मगर उस समय मैं विरोध की स्थिति में नहीं थी। सो लौट आयी थी। मगर मैंने देखा था, दरवाज़े की झिरी से झाँकती दो आँखें। कितनी व्याकुलता थी उनमें। फिर तो उनसे मिलने को मेरा मन और भी अकुला उठा था; मगर सारी औरतों की नजरें मुझ पर ही थीं और उनकी नजरों में बड़की अम्मा किसी शुभ काज के लायक तो थीं नहीं। सो-?
मैं विदा हो गई। बड़की अम्मा की परछाई भी मुझ पर नहीं पड़ी थी; मगर क्या मैं सुखी हूँ? शायद सुखी ही हूँ। लोग तो यही कहते हैं। क्या कमी है मुझे; आलिशान घर, गहनों से भरा लाकर और कमाऊ पति। एक औरत को और क्या चाहिए भला? इन्हीं सोचों में समय का पता ही नहीं चला।
पुरुषोत्तम आ चुके थे। सो रसोई में जाकर चाय बनाई। वापस आई तो वे अखबारी दुनिया में खो चुके थे। कोई और दिन होता, तो मैं चाय रखकर भीतर चली जाती, मगर आज तो .... । सो -
"सुनिये।"
-----------देर तक कोई जवाब नहीं मिला तो -
"सुनिये। "
"अब कहो भी। मैं बहरा तो हूँ नहीं। " यह कोई नई बात नहीं थी। मुझसे बात करने का यही अंदाज रहा है इनका। तभी तो हमारे बीच महीनों कोई बात ही नहीं होती। आज भी मन कसैला हो उठा था। मन में आया कि कुछ कहूँ ही न … ....।. मगर विवाह वाली बात तो बतानी ही थी। सो मैंने पत्र उनके आगे रख दिया। कुछ देर तक फिर वही ख़ामोशी फिर -
"तुम चली जाओ। मुझे फुरसत नहीं हैं। "
मुझे मालूम था जवाब यही होगा। हमेशा यही होता रहा है।इसी के चलते तो सारी बिरादरी से कट गई हूँ मैं । किसी के काज परोगन में जाना हो ही नहीं पाता। अकेले जाकर लोगों का निशाना बनना? मुझमें इतनी हिमम्त नहीं थी। सो मैंने खुद को समेट लिया था, मगर इस बार सवाल मेरी बड़की अम्मा का था। सो … ....।.
सुबह की बस थी। माली काका मुझे बस में बिठाकर लौट चुके थे। बस के छूटने का समय हो चुका था और बस भी ठसाठस भरी चुकी थी, फिर भी कंडकटर सवारियों को हाँक लगाये जा रहा था। गर्मी से मेरा मन अकुला रहा था। पर … .....? वह सवारियाँ भरता ही जा रहा था। जब बीच की जगह भी भर गयी तब बाद बस चली थी। मेरी सीट खिड़की के पास थी। सो कुछ राहत सी मिली, तो मन फिर गाँव जा पहुँचा था - विजय अभी किशोर ही था कि ताऊ जी चल बसे थे। संयुक्त परिवार था। ताऊ जी घर के कमाऊ पुरुष थे; मगर अब उनके परिवार को बिठा कर कौन खिलाता। सो संपत्ति का बटवारा हुआ। सारी संपत्ति परिवार ने हथिया ली। बड़की आम्मा के हाथ आई थी, चौपाल और ताऊ जी के नाम का ढेर सारा कर्ज। जाने कितने कितने लेनदार पैदा हो गये थे। कभी जिसकी शक्ल तक नहीं देखी थी, वो भी द्वार पर आ खड़ा हुआ। क्या करतीं वे। अपने जेवर बेचकर कर्ज अदा किया और कुटौनी - पिसौनी करके गुजरा करने लगीं। फिर भी उनकी कोशिश रही कि विजय पढ़ जाये, कुछ बन जाये वो, मगर पिता के जाते ही एकदम आज़ाद हो गया वो। फिर शराब और गाँजे में डूबता चला गया था।
सालों पहले गाँव गयी थी मैं। उनकी हालत देख कर मन दुखी हो उठा था। जिनके घर में हमेशा मनई रहता रहा था। जिसने कभी आँगन के हैंडपंप से भी पानी नहीं भरा था: वो अब अपना ही नहीं औरों की चाकरी करने पर मजबूर थीं। मैंने उन्हें अपने साथ चलने को कहा, तो -
"बिटिया के घर ? नाहीं बिटिया। "कहकर हाथ जोड़ दिये थे। मैंने बहुत कोशिश की ;मगर वे तैयार ही नहीं हुईं थीं ।मैंने सरपंच काका से बात करके उन्हें आँगन बाड़ी में सहायिका का काम दिलवा दिया था ।
फिर सालों तक गाँव जाना नहीं हुआ। लोग आते ,तो खबर मिल जाती।खबर मिली कि विजय पर भी परिवार का रंग चढ़ लगा है ! अब बड़की अम्मा सबसे बड़ी दुश्मन थीं उसकी। ' तब किशोरावस्था थी। नासमझ था। अब बदल गया होगा। ब्याह जो है उसका ।' सोचा मैंने।
शाम होते होते गाँव आ गया । पहुँचते ही रिश्ते की भाभी, चाची, सबने मुझे घेर लिया था। भाभी की नजरें तो मेरे कंगन पर अटक हुई थीं कि -
"चलो हटो हिंया से। हमरी बिटिया के सुख को नजर न लगाव।अब कउनो अइसे वइसे घर म तो ब्याहा नाहीं है न।हमार दमाद तो हीरा है हीरा। "अम्मा ने अपनी तारीफ के साथ साथ उन पर कटाक्ष किया तो -
"हाँ चाची! फिर ऊ हीरा के लाल भी होते तो....?" कहकर भाभी ने उनकी दुखती रग ही मसल दी थी। अम्मा को बर्दास्त न था कि कोई उनके दामाद की ओर ऊँगली उठाये। और कोई समय होता तो वे उनके सात पुरखे तक नाप देतीं ? मगर आज ? सारा आँगन औरतों से भरा था । सो मन मसोस कर रह गईं थीं वे । मैंने देखा, बड़की अम्मा आज भी वहाँ नहीं थीं ! 'आज तो उनके अपने बेटे का ब्याह था ? और वे ही ?' सोचा मैंने। फिर मेरी निगाहें विजय पर जा टिकीं। तमाम औरतों से घिरा विजय हँसी मजाक में वयस्त था ।उसे तेल चढ़ रहा था।यह एक महत्वपूर्ण रस्म थी। " मगर बड़की अम्मा ?वे वहाँ नहीं थीं। सो -
अम्मा ! बड़की अम्मा कहाँ हैं "
"होइहंय अपने चौपार म। "
"क्यों यहाँ क्यों नहीं आईं" ?
"बऊरा गयी हो का ? एक तव उढ़री , ऊपर से बेवा । असगुन करय क हय का ? तनिकव अकिल नाही हय। तोहार पढा लिखा सब बेकारय हय । "कहकर उन्होंने ने मुझे ही नासमझ करार दे दिया था। फिर तो वहाँ कुछ कहना ही बेकार था। सो मैं बाहर आ गयी और मेरे कदम् चौपाल की ओर बढ़ चले थे । वे अँधेरे में लेटी हुई थीं। उनकी साँसें बता रही थीं कि वे रो रही हैं। मेरी आहट पाकर वे उठ बैठीं थीं और
"अरे बिटिया !तुम कब आयीं ?" वे सामान्य होने की कोशिश कर रही थीं।
" बड़की अम्मा आप यहाँ ? ऐसे अकेले ?हुँआ तेल चढ़ रहा है और आप --------?"
बिटिया हमार उहाँ का काम। बस विजय सुखी रहय आउर का चाही हमे । "
" बड़की अम्मा आप भी ? आप मानती हैं कि वहाँ जाने से विजय का सुख छिन जायेगा। आपकी सोच तो सबसे अलग थी ! फिर अब ?"
" वहय सोच तव हमका -------- ।हम टूट गयी हैं बिटिया ।जिंदगी भर जूझ कय का मिला ? अब तव अापन बच्चा भी ? " कहते हुये वे फफक पड़ी थीं।ये कैसी व्य्वस्था है?' जहाँ एक माँ जो बच्चे को साँसें देती है उसके लिये मंगल कामनायें करते जिसकी जुबान थकती नहीं है; अपने बच्चे के लिये अपशकुनी हो जाती है?' मैं सोच रही थी कि तभी वहाँ अम्मा आ गयीं और -
" अरे दिया तव बार लेतिव ।लरिका कय बियाह है। कोई मरा नाही है। अब रोय रोय कय असगुन तव न करव ! "
" अम्मा अइसे जरे पर नोन तव न छिरकव ! उ तव वयसय दुःखी हैं ऊपर से " मैरी आवाज़ तल्ख हो उठी थी । मेरा उनके पक्ष में बोलना उन्हें अच्छा नहीं लगा था। पर कुछ कहा नहीं था। कुछ देर तक चुप रहीं ।फिर--
"-चलव चलिके तुँहुँ तेल चढ़ाय देव । "
मैं बड़ी बहन थी और सुहागन भी ।सो तेल की रस्म में मुझे जाना पड़ा। मैं चली गयी थी उनके साथ,मगर तेल चढ़ी की उस रस्म में मन नहीं लगा था मेरा । विवाह की तमाम रस्मों में अम्मा ही आगे रहीं ,वे कहीं नहीं थीं।अकेली अपनी चौपाल में ही पड़ी रहीं वे । बारात सजी ,दूल्हा मियाना में बैठे ,उससे पहले 'दूध पियववा 'की रस्म होनी थी।इस रस्म में माँ अपने बेटे से अपने दूध का कर्ज उतारने की बात कहती है। वह उसे धमकी देती है कि यदि उसने ऐसा नहीं किया ;तो वह कुएं में कूद क्र अपनी जान दे देगी और बेटा उसे विश्वास दिलाता है कि वह उसका कर्ज उतरने के लिये विवाह करने जा रहा है। विवाह के बाद वे दोनों जिंदगी भर उसकी सेवा करेंगे । इस रस्म में तो उन्हें ही होना ही था ।सो मेरी निगाहें उन्हें ढूँढ रही थीं ; मगर इस रस्म को भी अम्मा ही निभा रही थीं। जिसके दूध से उसका कोई संबंध ही नहीं था वो दुध पियववा की रस्म निभा रही थी और जिसने अपना जीवन ही होम कर दिया था ,वो ........?सोच कर मन कसैला हो उठा था। बारात रवाना हो गयी। घर में रात भर नकटा गाया गया। हँसी मज़ाक भरे स्वाँग रचे गये सारा घर रौशनी से जगर मगर करता रहा ;मगर चौपाल अँधेरे में ही डूबी रही।बहू आयी तो परछन से लेकर सारी रस्मों में फिर अम्मा ही ..... ! मेरा मन उन रस्मों में रम ही नहीं पा रहा था । सो अगले दिन ही मैं लौट आयी थीं। ।
***
फिर कभी गाँव जाना हुआ नहीं। बस उनकी खबरें आती रहीं कि विजय ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया है। कि अब वे घर से बाहर जानवरों के मड़हा में रहती हैं । फिर खबर आयी कि वे गाँव से बाहरवाली महुवारी ( महुये का बगीचा )में रहने लगीं हैं! फिर खबरआयी कि उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है । अब वे गाँव भर में भटकती फिरती हैं।' जिन हालातों में वे जी रही थीं उसमें ये तो होना ही था। 'सोचकर मन बेचैन हो उठा था ।आँखों में उनकी वो भटकती छवि उभरी, तो मुझसे रहा ही नहीं गया था और मैं गाँव के लिये रवाना हो गयी।
गाँव पहुँच कर उन्हें बहुत ढूँढा मगर वे नहीं मिलीं ।फिर गाँव के बाहर महुवारी में जाकर देखा ,तो पीपल के पेड़ के नीचे खड़ी, एक औरत, कौवों पर पत्थर फेंक रही थी। उसके बदन पर चीथड़े लटक रहे थे। वो बड़की अम्मा थीं।आँचल से ढके रहने वाले सिर पर आज आँचल नहीं था,वह तार तार होकर धूल में पड़ा था।बचपन में दादी एक कहानी सुनाया करती थीं। कउआ हँकनी की कहानी। एक औरत को कउआ हँकनी बना दिये जाने की कहानी। आज वो कहानी नहीं हकीकत बन कर मेरे सामने थी। मैं उनकी ओर बढ़ी ,तो वे भागकर महुवारी के उस भाग में जा छिपीं थीं ,जो बहुत घना था। वहाँ कँटीली झाड़ियों थीं। मैंने बहुत ढूढ़ा था उन्हें , पर वे नहीं मिली थीं । अँधेरा हो गया था। अब शहर लौटना संभव नहीं था । सो मुझे घर जाना पड़ा, वरना उस घर में जाने का न तो मन था और न ही कोई कारण।
मैंने देखा। घर पे सब खुश थे। लगा ही नहीं कि उस घर का कोई सदस्य है जो यूँ ....... ? मैंने भी कुछ नहीं पूछा। मुझे सुबह का इंतजार था।सुबह होते ही मैं एक बार फिर महुवारी गई। छुपने की हर जगह को देखा , मगर वे कहीं नहीं थीं ! हारकर मैं लौट आई। मगर इस बार मैं अकेली नहीं थी। मेरे साथ थी, कौवा उड़ाती एक छवि ।