यह मेरुदंड है न!
जिस पर हम खड़े हैं
वह टूट गया है..
हमसे रूठ गया है
शरीर का बोझ
सहन नहीं होता
अनवरत आघात
अनवरत पक्षाघात
अनवरत पीड़ा, यह
मेरुदंड हार गया।
जिन मापदंड पर
कभी हम खड़े थे
झुक जाए पीठ
मगर
हम लड़ते थे
वो बिखर गई है
जिस्म से पीठ अब
तो..अलग हो गई है।
आप कहते हैं, खड़े हैं!
झूठा दम्भ है जनाब..
सब गिरे पड़े हैं..!!
वाणी से शब्द गिर गए
अपावन लब्ध हो गए
पावनता तर्पित हो गई
मर्यादा धूसरित हो गई।
आयु के स्तंभ जर्जर
अतीत के कोने निर्हर
वन हमारे निर्जर हो गए
मन हमारे प्रस्तर हो गए।।
संन्यास से संत विचलित
आत्मा से सर्व स्खलित
मन से धूनी नहीं लगती
तन से सुधि नहीं लगती।।
मन से हम सभी वैरागी
भले, तन से हों हम रागी
निष्ठा अब घर भूल आई
चन्द्रमुखी तम ले आई।।
सच कहूँ, सूरज ढलने लगा
निकलते ही वो खोने लगा
संस्कार जो कभी पूंजी थे
ऊर्जावान जो कभी गूंजे थे
वो सम्बल अब टूट गया..
देह से मेरुदंड रूठ गया!!