- विमल चन्द्राकर
- कविता / ग़ज़ल
चालीसवें बसंत पर हूँ
चालीसवें बसंत पर हूँ
कल रात की ढ़लान के बाद
अभी भी मैं शायद खिला हूँ...
पर जर्जरता क्षीणता तो नियति है।
चालीसवें बसंत पर हूँ
कल रात की ढ़लान के बाद
अभी भी मैं शायद खिला हूँ...
पर जर्जरता क्षीणता तो नियति है।
आये फिर लहरों में तिरने के दिन
घोल रही मधुगन्धा मदमाते घोल
इच्छाएँ घूम रहीं बाँध-बाँध टोल
पल्लव से अंतर के चिरने के दिन
जिस रोज तुम्हारी गागर से सतरंगी रंग छलक जाए .
उस रोज समझना धरती पर फिर फागुन आने वाला है
अनसुनी सी रही रात की रागिनी
अनमने से सपन कसमसाते रहे।
हम सजाते रहे छांव के गुलमोहर
वो खड़े धूप में तन जलाते रहे।
आमों पर खूब बौर आए
भँवरों की टोली मँडराए
बगिया की अमराई में फिर
कोकिल पंचम स्वर में गाए
महफ़िल पै थी निगाह यही सोचते रहे,
आई किधर से वाह यही सोचते रहे।
उम्मीद कम थी फिर भी भरोसा ज़रूर था,
कोई तो दे पनाह यही सोचते रहे।
प्रहर-दिवस, मास-वर्ष बीते
जीवन का कालकूट पीते.
पूँछें उपलब्धियाँ हुईं
खेलते हुए साँप-सीढ़ी
मंत्रित-निस्तब्ध सो गयी
आग पर पानी
डालकर
राख सुलगाते हैं
कितने कमजोर
हैं, हम जो नाहक
डरकर भाग जाते हैं।
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