प्रहर-दिवस, मास-वर्ष बीते
जीवन का कालकूट पीते.
पूँछें उपलब्धियाँ हुईं
खेलते हुए साँप-सीढ़ी
मंत्रित-निस्तब्ध सो गयी
युद्ध-भूमि में युयुत्सु पीढ़ी
कंधों पर ले निषंग रीते.
खुद ही अज्ञातवास ओढकर
धनञ्जय बृहन्नला हुआ
मछली फिर तेल पर टँगी है
धनुष पडा किंतु अनछुआ
कौन इस स्वयम्वर को जीते.
जाने कैसा निदाघ तपता है
आग भर गयी श्यामल घन में
दावानल कौन बो गया
चीड-शाल-देवदारु वन में
अकुलाये सिंह-व्याघ्र-चीते.