स्वयं को
खोजने निकला है
फिर से बावरा ये मन
हमें मालूम है इस राह में हैं सैकड़ों अड़चन
पलक ने रोक रखी थी,
अभी तक बूंद एक खारी।
ढुलकने चल पड़ी वो भी,
वफ़ा की देख अय्यारी ।
कसक है,टीस है हरपल,
ज़रा सी छटपटाहट है ।
हृदय में पीर की इक
अनकही सी गुनगुनाहट है ।
इसी पीड़ा का आंखों में
हुआ करता है अब नर्तन ।
निहारें कब तलक हम,
चाँद तारे स्याह रातों में ।
नहीं भरता है भूखा पेट,
मोहक चंद बातों में, ।
हमें ही खुद उठाना है,
हमारा बोझ कांधो से ।
समेंटेंगे हम अपनी
ख्वाहिशों को,नियत बांधो से ।
विवशता में बंधे रहना ही
अपना बन गया जीवन ।
उदासी के घने जंगल हैं
बिखरे दूर मीलों तक ।
पहुँचना है किसी सूरत से,
खुशियों के कबीलों तक ।
हमारी राह मुश्किल है
मगर उम्मीद ज्यादा है।
हमारी प्यास के सम्मुख,
नदी का नीर आधा है ।
इसी आधे अधूरे से
सदा से है मेरी अनबन ।
स्वयं को
खोजने निकला है
फिर से बावरा ये मन
हमें मालूम है इस राह में हैं सैकड़ों अड़चन....