आग पर पानी
डालकर
राख सुलगाते हैं
कितने कमजोर
हैं, हम जो नाहक
डरकर भाग जाते हैं।
ठंडा पड़ जाता है
एक दिन, सभी तो
मुद्दा...?
शरीर..?
संवेदना..?
भावना..?
यादें...?
ये नारे..?
देखो न!
स्थाई न
आँसू रहते
न मुस्कान
अधरों पर आते-आते
अश्क मर जाते हैं,
और
इस मुस्कान की तो
उम्र ही बढ़ी नहीं होती।
तुम चिल्लाते तो
शरीर कांपता है
बंद मुट्ठी से तुम्हारे
रेत झड़ती है..
ठीक वैसे ही
जैसे
सियासत के हाथों
मुद्दा फिसलता है।।
तुमने-हमने कितने
ज़लज़ले देखे
जले मकान
जली बस्ती
जले दिल
तड़तड़ाती गोलियां
जली-कटी बोलियां
लुटती पिटती बेटियां
समय की आग है,ये
सब ठंडी पड़ जाएगी
रह जायेगी सिर्फ आग
जिसे हर साल जलाओगे।
नाहक! ना-अहल !!
बेवजह चीखते हो
जब तक सूरज चाँद रहेगा
........तेरा नाम रहेगा...??