प्रखर अनुभूतियाँ लिए गर्मजोशी, उतेजना, गहरी भावुकता से अपनी बात कहता है नवगीत। इसमें सहज मार्मिक संवेदना होती है। नवगीत प्रकृति और आधुनिकता से प्रेरणा प्राप्त करता है। कौंधती स्मृतियों के जरिये बिम्ब गहरे उतर जाते हैं मन में।
शिल्पगत ताजगी आत्म संवाद स्थापित कर लेती है पाठकों से। नवगीत की भाषा शैली गीत की परंपरागत भाषा शैली की सीमा को तोड़ चुकी है। नवगीत धीर-धीरे अनुभवों में डूबने समझने, छोटे छोटे पदबंधों में प्रभावशाली बिम्बों की प्रस्तुति करने में सक्षम हुए हैं। शब्द संगति और प्रसंग स्वयं नवगीत की व्याख्या कर देता है।
नवगीत वर्तमान विसंगतियों को देख परख उनसे मुक्त होने उबरने की प्रेरणा सी देते प्रतीत होते हैं। लाक्षणिकता और व्यंजना से ओतप्रोत संवेदना और शिल्प के सौंदर्य से युक्त हैं। नवप्रयोगधर्मी नवगीतों में खण्डित व्यवस्था और दूषित वातावरण की पीड़ा देखते ही उभर जाती है। नवगीतों के प्रभावी बिम्ब कम शब्दों में ह्रदय की पीड़ा अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं। नवगीतों की जिजीविषा अवरोधों को तोड़कर, आश्वासनों को छोड़कर उभरती है। नवगीत कोई नई विधा नहीं यह गीत के भीतर ही शब्दिक नवाचार कहा गया है। इसमें छंद भी है लय भी और मात्रिक बाध्यता भी। नवगीत समष्टि संवेगों विसंगतियों के सामने से आईने की तरह गुजरता है। अतीत की स्मृतियों में झाँक कर आगत की प्रस्तुति करता है। बौद्धिक प्रखरता और शाब्दिक संपदा के बिना नवगीतों को रचना मुश्किल है। नवगीत एक मंत्रमुग्ध करती नूतन भाषा शैली में रचा जा रहा है जिसे पढ़कर पाठक झूम उठता है। पूर्णिमा बर्मन का एक नवगीत देखिये
कौन गहे गलबहियाँ सजनी
कौन बंटाए पीर
कब तक ढोऊँ अधजल घट यह
रह -रह छलके नीर
झंझा अमित अपार सखी री
आँचल ओट सम्हार
चक्र गहें कर्मों के बंधन
स्थिर रहे न धीर
तीन द्वीप और सात समंदर
दुनिया बाजिगीर
जर्जर मन पतवार सखी री
भव का आर न पार
नवगीत समस्या का बखान ही नहीं करते उसका समाधान सा प्रस्तुत करते प्रतीत होते हैं
जगदीश पंकज का एक गीत देखिए
सब कुछ खत्म नहीं है
अब भी बहुत शेष है उसे संवारो
खिलते फूलों पर मँडराती
तितली के पंखों के रंगों की
झिलमिल जिंदा है
नभ में उड़ते हुए परिंदों की लम्बी
उड़ती बतियाती महफ़िल भी जिंदा है
गोरैया की चहक अभी भी नहीं खत्म है
उसे पुकारो
घर को पल भर में राख कर गयी नियति की विभीषिका की आग को नवगीत किस तरह प्रस्तुत करता है योगेंद्र दत्त शर्मा का नवगीत देखिए-
घर में चहल पहल थी कल तक अब केवल कुहराम शेष है
उखड़ी सुबह दुपहरी घायल
टूटी जर्जर शाम शेष है
नेह छोह वाले आँगन में
द्वेष घृणा के बीज परस्पर
पनप रहे हैं धीरे- धीरे
खिसक रही दहलीज निरन्तर
घर को ग्रहण लग चुका कब का
घर का केवल नाम शेष है
जब साधारण गीतकार खुशनुमा माहौल में स्थूल सौंदर्य या प्राकृतिक सौंदर्य में डूबे प्रेम गीत रचते हैं नव गीतकार थर्मामीटर बैरोमीटर थामकर मौसम का दबाव व तापमान नापने लगता है. वेद प्रकाश शर्मा वेद का एक नवगीत देखिए
जनगणमन वाले पारे से
आस पास के तापमान को नाप रहा हूँ
आते तो हैं पास लोग फिर होकर भीड़ गुजर जाते हैं निर्विकार से
तितर बितर होते छितराते
मौन विसर्जन हो जाते जो थे कतार से
अर्जित अक्षर शब्द ज्ञान से बाँच बाँच कर युग की लिपि को
कांप रहा हूँ
नवगीतों के बिंब पूरी तरह भिन्न है गीतों से कुँवर बेचैन का नवगीत देखिए
नित आवारा धूप घोंपती
पथ में किरण छुरे
आज के दिन हैं बहुत बुरे
जो चाही गाली फूलों ने कांटों को बक दी
पगडण्डी के अधरों पर फिर गर्म रेत रख दी
चारों और तपन के सौ सौ निर्मम जाल पुरे
नवगीत अपनी सार्थकता को किस प्रकार सिद्ध कर रहा है
देवेंद्र शर्मा इंद्र जी की रचना देखिए -
हाँ मैं हर संशय का समाधान हूँ
उच्छल जल प्लावल में महायान हूँ
बोधि वृक्ष पर लटका चीवर हूँ मैं
पूजा का अंतिम इंदीवर हूँ मैं
हिमगिरि के शिखरों पर यक्षगान हूँ
गंगा की लहरों पर दीप दान हूँ
गाँव लौटते शहर का चित्र नवगीतकार कैसे खींचता है संजय शुक्ल का नवगीत देखिए
ठीक बरसभर बाद सुखनवा घर को लौट रहा
संभावित प्रश्नों के उत्तर मन में सोच रहा
पूछेगी अम्मा बचुआ क्यों इतने सूख रहे
पीते प्यास रहे अपनी क्या खाते भूख रहे
कह दूँगा अम्मा शहरों की उल्टी रीत रही
वही सजीले दिखते जिनके तन में लोच रहा
डॉ श्याम निर्मम, महेश अनघ, डॉ विष्णु विराट, डॉ राधेश्याम शुक्ल, कुमार रविन्द्र, मधुकर अस्थाना, अवध बिहारी, श्री कृष्ण शर्मा, ब्रजभूषण गौतम, अनुराग चतुर्वेदी, बाबू राम शुक्ल, विद्यानंदन राजीव, जगत प्रकाश, शीला पांडे तारा गुप्ता। गीता पांडे, मीरा शलभ आदि नवगीत के अच्छे रचनाकार हैं। जिन प्रसिद्ध नामों से परिचित नहीं उनके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। सभी नवगीतकारों से एक निवेदन है वे गीत के इस खूबसूरत बढ़ते बच्चे को उसके काव्य परिवार से अलग थलग ले जाकर परवरिश करने की कुचेष्टा न करें वरना यह कुम्हला जाएगा।
नवगीत समय सापेक्षता को कथ्य में लेकर आगे बढ़ता है। समय की हर चुनौती उसकी समग्रता में स्वीकृत है। नवगीत लय और गेयता को ध्यान में रखकर आधुनिक बच्चे की तरह गढ़ा जाता है। गीत अधिकतर व्यक्तिकेन्द्रित जबकि नवगीत अधिकतर समष्टि केंद्रित होता है। इसमें छायावादी शैली का प्रयोग नहीं होता। नवगीत लिखने वाले मगर किसी भी प्रकार का दम्भ न पालें कि उन्होंने किसी विशेष विधा में महारत हासिल कर ली जो आजकल उनमें देखा जा रहा है उन्होंने अपनी टोलियाँ बनानी शुरू कर दी हैं। गीत कहीं भी नवगीत से कमतर नहीं बाप से बेटा बेहतर हो भी रहेगा तो उसका अंश ही। गीत में दर्द नवगीत से भी अधिक मुखर हो सकता है।
मासूम बच्चों की स्थिति को बयान करता संजय शुक्ल जी का एक ईमानदार मार्मिक गीत भी देखिए नवगीत में हृदय झकझोर देने वाली ये मार्मिकता बहुत कम देखने में आती है
"मुन्नू क्रैच चला"
मम्मी पापा चले जॉब पर
मुन्नू क्रैच चला
आधा बचपन घर में आधा
घर से दूर पला!
लिपट-लिपट जाए मम्मी से
बिलख-बिलख जाए
देर हो रही है ऑफिस को
पापा झुँझलाए
अपना ही जाया लगता है
उनको बड़ी बला!
बहुत देर तक चीख-चीख फिर
सुबुक- सुबुक रोए
समझ न पाता खोया खुद या
मात-पिता खोए
ताक रहा उस दरवाज़े को
जिसने उसे छला!
खेल-खिलौने बहुत मगर मन
रमता नहीं यहाँ
देखभाल बस ठीक- ठाक है
ममता नहीं यहाँ
लोरी, थपकी नहीं, दवाएँ
देती यहाँ सुला!
धीरे-धीरे कटा बड़ा दिन
साँझ लगी ढलने
तरसी आँखों से आँसू बन
धैर्य लगा गलने
फूल हथेली आँखें पौंछें
रुंधने लगा गला!
घोर त्रासदी का दिन बीता
सुख के क्षण आए
इस गोदी से उस गोदी में
पुलक-पुलक जाए
मात-पिता को पाकर फिर से
मुरझा फूल खिला!
खट्टी-मीठी मिन्दी देकर
हुलस-हुलस जाए
बोल-बोलता मधुर तोतले
लीला दिखलाए
रस्मी मुस्कानों के बदले
किलके बहुत लला!
पापा जब घर आएँ, आधा
ऑफिस भी लाएँ
फिर ख़बरों में, 'लैपी' में
फोनों में खो जाएँ
नटखट का कुछ समय माँगना
उनको बहुत खला!
मम्मी के स्वर में भी उभरी
अब तल्खी हल्की
कुछ कडुवाहट बाहर की, कुछ
भीतर की छलकी
कहती- "घर-बाहर खटने में
जीवन लगे जला”!
पापा कहते- "क्या आफत है
ज़रा संभालो भी"
मम्मी कहती- "चौके में हूँ
साथ लगालो भी"
रीझ रहे थे अभी, खीझने
फिर क्यों लगे भला?
रात हो रही है अब उसको
सोना ही होगा
लादा जो जाएगा उस पर
ढोना ही होगा
झिड़क दिया जाएगा ज़्यादा
अगर कभी मचला!
ठगा-ठगा-सा बचपन, खेला
समझ नहीं पाए
लुटा-लुटा-सा, पिटा-पिटा -सा
थक कर सो जाए
सपनों में जब क्रैच दिखी तो
चीख मार उछला!
आधा बचपन घर में आधा
घर से दूर पला!
मम्मी पापा चले जॉब पर
मुन्नू क्रैच चला
- संजय शुक्ल
धनंजय जी का नवगीत देखिये
आकुलता को नए -नए आयाम दे दिए
मन के आसपास महका कर मधु गंधाएँ
एक शब्द के लिए गीत का ताना बाना कौन बुनेगा
बुन भी लें तो मनोयोग से रुदन हमारा कौन सुनेगा
यों तो गीतों में रोने की रीत पुरानी
पर अपनी भी नई कहाँ है राम कहानी
दुर्बलताएँ मन को पहले से घेरे थीं
उस पर भी जादू रच बैठी मधु छंदाएँ
नवगीत हो या गीत संवेदना मार्मिकता ही प्रभावी रहेगी।
गीत और नवगीत की यात्रा एक दूसरे के हाथ में हाथ डालकर हो यही गीतकार और नवगीतकार दोनों के हित में है।