हेस्टिंग्स आए हुए मुझे बहुत वर्ष होने को है। यह लंदन से थोड़ा दूर एक बेहद साफ सुथरा गाँव है। मेरा यहाँ आना कैसे हुआ, मुझे भारत क्यों छोड़ना पड़ा, एक मार्मिक घटना है।
दिल्ली में, मैं सरकारी कार्यालय में एक अधिकारी के पद पर थी। एक दिन मेरे कार्यालय में एक व्यक्ति आया। वह बेहद काला था। उसकी आँखों में शायद कुछ दोष था जिस कारण उसने काला चश्मा लगाया हुआ था। उसकी नाक चेहरे पर अधिक फैली हुई लग रही थी तथा होंठ भी बड़े भद्दे से थे। कुल मिलाकर वह व्यक्ति दैत्य के आकार का, एक अजीब सा, अगर सच कहूं तो एक भद्दा दिखने वाला शख्स था। उसने मुझे अपनी संस्था की डायरी तथा कैलेंडर दिया। मैंने उसका आभार प्रकट किया। शाम को जब मैं अपने दफ्तर से निकली तो वह अभी भी बाहर खड़ा था। मेरी बस दफ्तर के सामने ही रुका करती थी। उसकी ललचाई सी दृष्टि देख मैंने उसे अवहेलना भरी दृष्टि से देखा और पेड़ के नीचे खड़ी हो गई। मैं बस की प्रतीक्षा करने लगी और भी बहुत से लोग अपनी अपनी बसों की प्रतीक्षा में वहां खड़े हुए थे। वह चुपचाप दूर खड़ा देखता रहा। मेरी बस आ गईऔर मैं उसमें सवार हो गई। मैंने देखा वह भी मेरी बस में आ गया है। मैंने सोचा उसे भी इसी रूट की बस पर जाना होगा। बस में सीट मिलते ही मैंने टेक लगाई और आँखें मूँद ली। मैंने महसूस किया किसी का हाथ मेरे बालों को छू रहा है। मैंने पीछे मुड़ कर देखा, वह व्यक्ति मेरी सीट के ठीक पीछे की सीट पर बैठा है। मैंने उसे क्रोध में देखा पर वह घबराया नहीं, वैसे ही बैठा रहा मानो उसने जानबूझकर कुछ नहीं किया। मैंने फिर टेक लगा ली और आँखें मूँद ली पर उसके पीछे बैठने का एहसास मुझे बना रहा।
अगले दिन मैं अपने घर से ऑफिस के लिए अपने बस स्टॉप पर पहुंची तो वह पहले से ही वहां खड़ा था। उसे देखते ही मुझे क्रोध आ गया लेकिन वहाँ हमारी बस के नियमित यात्री खड़े हुए थे। मैं भी चुपचाप खड़ी हो गई। वह मेरे पास आया और अपने ब्राउन कोट की जेब से उसमें एक पुड़िया सी निकाली और कहा यह आपकी अमानत कल बस में गिर गई थी। मैंने उठाकर रख ली। मैंने जल्दी से वह पुड़िया पकड़ ली और इधर उधर देखा, कहीं किसी ने देखा तो नहीं। मैंने पुड़िया खोली तो उसमें बालों में लगाने वाली हेयर पिन थी। मुझे लगा कल टेक लगाने से ये आसानी से मेरे बालों से गिर गई होगी। मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और वह पुड़िया वहीं फेंक दी। उसने अपना रुमाल उस पुड़िया पर गिराकर वह हेयर पिन कोड पुनः अपनी जेब में रख लिया। मैं दिल ही दिल तिलमिला कर रह गई। बस आई और वह भी मेरे पीछे वाली सीट पर बैठ गया। मैं सारे रास्ते बेचैन रही।
उस दिन कार्यालय पहुंच कर मैंने अपनी एक मित्र आशा को बुलाया और पूछा "एक बात सच सच बताना, क्या मैं ऐसी दिखती हूं कि कोई मेरे पीछे पड़ जाए और कोई मुझे आसानी से उपलब्ध होने वाली समझ ले।"
आशा ने कहा था "पागलों जैसी बातें करती हो, औरत जैसी भी हो, कैसा भी व्यवहार करें, पर कुछ आदमी उस पर हावी होने की कोशिश करते हैं।" उसने कहा था "आदमी तीन तरह के होते हैं, एक जो औरतों को देखकर राल टपकाते हैं, जिनकी राल दिख जाती है और दूसरे औरतों को देखकर अपनी पूछ सिकोड़ लेने वाले, मानों औरतें उन्हें देखते ही निगल जाएँगी। भाई दोनों ही तरह के आदमी मुझे पसंद नहीं, तीसरी तरह के संयत व्यवहार के आदमी ही मुझे पसंद है।"
"आखिर बात क्या है," आशा ने मुझे पूछा तो मैंने आशा को सारी घटना बता कर कहा कि मुझे उस भद्दे आदमी से डर लगने लगा है। उस दिन आशा भी मेरे साथ ही दफ्तर से बाहर आई और बस आने तक मेरे साथ रही। उसे वहाँ न पाकर मैंने राहत की साँस ली। आशा को वहीं छोड़ मैं बस में चढ़ गई। बस में बैठते ही मैंने देखा कि वह पहले से ही बस में बैठा हुआ है। उसे अनदेखा कर मैं ड्राइवर के केबिन में घुस गई। कैबिन में बैठने पर मैंने उसे देखा। वह इधर ही देख रहा था। उसने काला चश्मा अब उतार रखा था। उसकी आँखें एक मुर्दे की खुली आँखों जैसी लग रही थी। मैं बाहर सड़क की ओर देखने लगी।
एक-एक करके दिन यूँ ही गुजरते रहे। कई वर्ष तक लगभग हर रोज मुझे दिखा, उदास, निराश, वह मुझसे कोई बात नहीं करता था क्योंकि वह मुझ से डरता था। बहुत सारी घटनाएँ हैं जिनका मैं उल्लेख नहीं करना चाहती और उसकी श्रद्धा को मैं इस उम्र में बाजारु भी नहीं बनाना चाहती, हां कुछ विशेष घटनाओं का वर्णन संक्षेप में अवश्य करूँगी ताकि आपको आगे की कहानी पर विश्वास आ जाए कि मैं लंदन कैसे पहुँची।
उससे बचने के लिए निजी कार से मैंने दफ्तर आना जाना शुरू कर दिया, तो उसने भी कार खरीद ली। वह हमारी कार के आगे पीछे या साथ साथ ही रहता तो मैंने फिर बस में आना शुरू कर दिया। एक दिन हमारी बस नहीं आई तभी वह डरता हुआ मेरे पास आया और बोला "हमारी कार में यदि आप बैठें तो हमारी अंतिम इच्छा पूरी हो जाए।" मुझे उस पर बहुत क्रोध आया। जब उसने मुझे गुस्से में देखा तो कहा "आज ना सही, कभी ना कभी तो मैं आपको अपनी कार में बिठाऊँगा ही।" मैंने जवाब दिया था "इंपॉसिबल, इस जीवन में तो नहीं।''
इस पर उसने इतना ही कहा "गॉड इज ग्रेट।"
इन वर्षों में उसने कई प्रयास किए लेकिन मेरा पत्थर मन नहीं पसीजा। मैं जितना भी उसे कठोर बोलती, गालियाँ देती, वह हँसता रहता। हँसते हुए उसकी सूरत और भी भयानक लगती। एक बार तो मैंने उसे कह दिया, "तुम जानवर हो, तुम्हें मर जाना चाहिए, क्यों मेरे पीछे पड़े हो।" मैं उस दिन बहुत परेशान थी, मैंने कहा "मैं तुम्हारी शक्ल देख लूँ तो मेरा ब्लड-प्रेशर बिगड़ जाता है।" मेरी इन बातों को वह आराम से सह गया और बोला मैं जानता हूं, आपका प्यार का ढंग हमेशा ही निराला रहा है। शायद वे इस बात को इस तरह से लेता रहा था कि अगर मैं उससे परेशान हूँ तो मैंने अभी तक अपने परिवार को, अपने घर वालों को उसके बारे में क्यों नहीं बताया। हालाँकि उसने अपनी पत्नी को मेरे बारे में कुछ कुछ बता दिया था, ऐसा उसने मुझे एहसास कराया था। उससे अगले दिन जब वह मेरे दफ्तर में आया तो बोला "वंदना जी बहुत हो चुका, इतने बरस कुछ कम नहीं होते, मैंने बहुत तपस्या की है आपके लिए, सिर्फ एक बार, आप मेरी कार में चलिए, हम चाय या कॉफी पिएँगे, मैं कसम खाता हूँ, मैं सच कह रहा हूँ आपकी इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ नहीं कहूँगा बताओ ना, आप कब चलोगी।" उसके चेहरे पर मेरी हाँ सुनने की बाल बेताबी दिखी थी। मैंने उसे साफ साफ कह दिया था, "मेरे इरादे को आप नहीं बदल सकते, मैं न तो कभी आपकी कार में बैठूँगी और न ही कॉफी पीने चलूँगी, मैं शादीशुदा हूँ मेरा परिवार है, मेरा ऐसा करना धर्म के विरुद्ध है।" मेरे आखिरी वाक्य से उसका चेहरा और भयानक हो गया। उस दिन मैंने पहली बार उसे गुस्से में देखा था, फिर भी वह धैर्य से बोला "आज शाम को मैं कार लेकर आऊँगा, बस एक बार, मेरे लिए, मुझ पर दया करो, नहीं तो मैं मर जाऊंगा।" वह रुआंसा हो गया था। मुझे लगा कि वह बच्चों की जिद कर रहा है। मुझ पर भी जिद थी, मैं बहुत जिद्दी थी, शायद वह मुझसे भी ज्यादा जिद्दी था।
उस दिन मैं उससे पहले ही 4:30 बजे दफ्तर से निकली, मैंने देखा वह पहले ही बाहर खड़ा था। उसका चेहरा खिल उठा, मेरे पास आ गया और बोला "कार पार्किंग में है, मैं लेकर आता हूँ।" वह गया तो मैंने ऑटो पकड़ कर अपने घर की राह ली।
अपनी अगली सुबह जब मैं बस स्टाप पर पहुँची तो सब लोग बतिया रहे थे "वह कार के साथ ही यमुना में जा गिरा, कार तो मिल गई परंतु उसकी लाश नहीं मिली, तलाश जारी है।" बातचीत में मुझे यकीन हो गया कि यह लोग उसी व्यक्ति की बात कर रहे हैं।
हम सब लोग उसके घर जाकर उसकी पत्नी से मिले। उससे जानकारी मिली, पता चला वह तंत्र-मंत्र भी जानता था, उसे पुनर्जन्म पर विश्वास था। उसकी पत्नी ने बताया कि पहले वे लोग मुंबई में थे। एक रात उसे सपना आया कि वहीं दिल्ली में उसकी मां की आत्मा उसकी प्रतीक्षा कर रही है और वह वहाँ से नौकरी छोड़ दिल्ली में उसकी मां की आत्मा की शांति के लिए आ गया। उसने बताया कि किसी औरत के शरीर की गंध उसकी माँ के शरीर की गंध से मिलती है। वह अक्सर कहता था मैं जब तक अपनी माँ को कार की सैर न करा लूँ तब तक मुझे शांति नहीं मिलेगी। उसकी मां की अंतिम इच्छा थी कि वह एक दिन कार का मालिक बने। उसकी माँ जब बीमार थी तब उसे शहर ले जाने के लिए गाँव के मुखिया ने अपनी कार तक नहीं दी थी। माँ को अस्पताल ले जाते समय वह बहुत दुखी था। देर हो जाने की वजह से माँ ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। तब से ही गोवा के गाँव को छोड़ मुंबई बस गए, मेहनत करके अच्छी जगह पाई और एक रात के स्वप्नों के बाद वे मुंबई छोड़कर हमें दिल्ली में ले आए। अब हम कहाँ जाएँगे रोते रोते ही वह कहती जा रही थी।
उसकी पत्नी की बातें सुन मुझे आत्मग्लानि होने लगी। हालाँकि मुझे विश्वास नहीं था कि वह मुझे अपनी माँ समझता होगा परंतु मैंने उसकी कई बातों पर विचार किया तो मुझे खुद में ही दोष दिखने लगा और स्वयं को मैं इस दुर्घटना का दोषी मानने लगी।
नौकरी मुझे बोझ लगने लगी। कुछ समय बाद अपने बेटे की शादी करके 50 साल की उम्र में मैंने सेवानिवृत्ति ले ली। समय बीतता रहा।
एक दिन मुझे लंदन से एक पत्र मिला। मुझे वहाँ के एक स्कूल में शिक्षक की नियुक्ति के लिए आमंत्रित किया गया था। मैं बहुत हैरान थी, मैंने न तो स्वयं आवेदन किया था न ही मुझे लंदन में कोई जानता है फिर यह पत्र। आखिर मैंने उस पत्र पर अपनी स्वीकृति दे दी और उन्हें लिख दिया कि आप जब भी टिकट भेजेंगे मैं ज्वाइन कर लूँगी। एक दिन मुझे एक पार्सल मिला जिसमें लंदन का टिकट तथा कुछ जरूरी कागजात थे जिन्हें हस्ताक्षर कर उनको मुझे तत्काल लौटाना था। कागज पर दी गई शर्तें बहुत अजीब थी। सबसे अहम शर्त थी कि मुझे कम से कम 25 वर्ष वहाँ सेवा करनी होगी। यदि मैं हमेशा के लिए वहाँ बसना चाहूँ तो मेरा वेतन एक लाख रु महीना होगा। मैंने अपने पति से पूछा तो उन्होंने भी स्वीकृति दे दी और कहा कि वह बाद में आ जाएँगे।
लंदन पहुँच, स्कूल में पहले ही दिन मैंने प्रिंसिपल, जो वहाँ के अत्यंत समृद्ध प्रभावशाली व्यक्ति थे, के साथ उनके नौजवान बेटे मैजिक को देखा जो मुझे बड़ी आत्मीयता की नजरों से देख रहा था। मैजिक भूरे बालों वाला आकर्षक नवयुवक था। प्रिंसिपल ने मुझे बताया मैजिक ने कहीं आपका लेख देखा और उसने जिद पकड़ ली कि वह आपको यहाँ बुलाना चाहता है। मैजिक उनका इकलौता बेटा है और यह स्कूल अब उसी का है। मैं यहाँ खुश थी कुछ समय बाद मेरे पति और मेरा परिवार भी स्थाई रूप से रहने के लिए लंदन आ गए थे।
स्कूल में लाइब्रेरी थी, उस दिन मैं वहाँ अकेले बैठे भारत से संबंधित पुस्तकें देख रही थी। प्रिंसिपल वहाँ आए और उन्होंने मुझे एक पर्सनल फाइल देते हुए कहा कि मैं उसे संभाल कर रख लूँ। मीटिंग से लौटने के बाद मुझसे ले लेंगे। उनके जाने के बाद मैंने फाइल खोली। मैजिक के सर्टिफिकेट थे। मैंने उसकी जन्मतिथि देखी 26 अक्टूबर, सन.....। मुझे अचानक दिल्ली का वही आदमी याद आ गया। वह भी तो 26 अक्टूबर को इसी साल मरा था। इस तारीख को मैं कभी भूल नहीं सकती थी। मेरा सर घूमने लगा और मैजिक का व्यवहार भी कुछ कुछ समझ में आने लगा। मैं दिल्ली के अपने व्यवहार से पहले ही बहुत खिन्न थी, आखिर मैंने इंसानियत की दृष्टि से क्यों नहीं सोचा। पुरुष-स्त्री का एक ही संबंध तो नहीं होता। प्यार के एक ही रूप को क्यों महत्व देते हैं हम लोग। अगले दिन मैंने प्रिंसिपल को वह फाइल सौंप दी। प्रिंसिपल ने बातों बातों में बताया मैजिक भारत से बहुत प्यार करता है। उसने कभी भारत देखा नहीं।
स्कूल में मैजिक मुझे प्रतिदिन मिलता परंतु वह मुझसे कोई विशेष बात नहीं करता। मुझे लगता वह मुझसे नाराज है, पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगने लगा था कि मैजिक दिल्ली वाला ही आदमी है।
एक दिन जब मैं स्कूल पहुँची तब पता चला कि मैजिक के पिता का दिल का दौरा पड़ने के कारण देहांत हो गया है। मैं अन्य टीचरों के साथ उसके घर गई तो वह उदास बैठा था। मैंने प्यार से उसके सर पर जैसे ही हाथ फेरा वह फूट-फूट कर रोने लगा। देर तक वह रोता रहा और मैं उसे चुप कराती रही। एक सप्ताह के बाद मैजिक स्कूल में आया और उसने मुझे कहा "आप मेरे साथ दुर्ग देखने चलें। मैंने उसकी उदासी देख स्वीकृति दे दी। उसके चेहरे पर खुशी थी, लंबी कार ड्राइव करते समय वह कई बार रोया था। कुछ कुछ मैं समझ रही थी परंतु कुछ भी कहना नहीं चाहती थी। उस दिन मैंने मैजिक के साथ हेस्टिंग्स दुर्ग देखा। शाम को वह मुझे क्लब ले गया, वहाँ उसने मुझे काफी पिलाई। वह मेरा चेहरा पढ़ रहा था और मैं उसका मन। बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उसने मेरा हाथ पकड़ कर कहा "आंटी अब आप स्कूल का सारा कामकाज सँभाल लीजिए। मैंने हैरानी से पूछा था "क्यों"?
"मैं ठीक कह रहा हूँ, मेरी अब कोई इच्छा नहीं रही, मैंने आपको कॉफी भी पिला दी है और अपनी कार पर घुमा भी दिया है, आपके इसी जन्म में।" मैंने हैरानी से उसे देखा तो वह मुस्कुरा उठा, "आप सब भूल गई क्या"?
अगले दिन उसने सारे कागजात मेरे नाम ट्रांसफर करवा दिए और स्कूल मेरे नाम सुपुर्द कर दिया। मैंने उसे बहुत कहा कि वह यही शादी कर ले। उसने कहा उसे भारत लौटना है, वहाँ सब उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। भारत लौटने से पहले उसने मेरे बेटे और मेरे परिवार के सभी सदस्यों को यहां लंदन बुलवा ही दिया था। मेरे बच्चे अब स्कूल के काम में अपने पिता अर्थात मेरे पति का हाथ बटाते हैं। मैजिक भारत लौट गया है। वह मुझे कह कर गया था, वह फिर लौटेगा पर लौटा नहीं। अभी तक न ही उसका कोई पत्र मेरे पास आया है।
क्या माँ की अंतिम इच्छा पूरी करना है उसका मकसद था? क्या वह मुझ में अपनी माँ देखता था? क्या वह काला आदमी ही तो जीवित नहीं जिसने मैजिक को प्रभावित किया हो? क्या मैजिक उसी का पुनर्जन्म है? पता नहीं, लेकिन सब कड़ियाँ एक होकर भी बिखरी बिखरी सी लगती है।
मैं आज भी उस काले और भद्दे आदमी को याद करती हूँ परंतु नफरत के साथ नहीं। काश मैंने उसी समय उसका अंतर्मन पढ़ा होता चेहरा नहीं। उससे बात की होती, चुप्पी नहीं ओढ़ी होती। मुझे लगता है मैजिक मुझे मिलने एक न एक दिन लंदन जरूर लौटेगा। आप भी दुआ करें, वह सिर्फ एक बार यहाँ आ जाए।