गर्मियों का मौसम था| हमेशा की तरह गर्मियों की छुट्टियों में सपरिवार अपने गाँव गए हुए थे| जब वापिस लौटे तो पाया, ड्राइंग-रूम में इधर-उधर कुछ तिनके फैले हुए हैं| अरे! ये तिनके कहाँ से आ गए? किस ने फैलाये होंगे? सब हैरान थे और चारों तरफ अपनी निगाहें दौड़ा रहे थे| आखिर पता चल ही गया|
एक चिड़िया ने एग्जॉस्ट फैन के ब्लेड और फ्रेम के बीच खुली जगह में अपना घोंसला बना लिया था| घोंसला बनाने के लिए जुटाए गए तिनकों में से कुछ घोंसला बनाने की प्रक्रिया के दौरान छिटक कर गिर गए होंगे और फिर हवा से इधर-उधर फ़ैल गए| अब सवाल ये था कि करें क्या इस घोंसले का? हटायें या रहने दें? ड्राइंग-रूम में भला घोंसले का क्या काम? अत :हटाने का ही फैंसला हुआ| जब हटाने लगे तो देखा, कुछ अंडे पड़े थे| अंडों को पड़ा देख घोंसला हटाने को मन नहीं माना| सोचा, जब अंडों से बच्चे निकल, बड़े हो, उड़ने लगेंगे, तभी हटाएंगे घोंसला| सभी ने समर्थन किया. और घोंसला हटाने का विचार त्याग हम सब अपने अपने कामों में लग गए| एग्जॉस्ट फैन का कनेक्शन काट दिया क्योंकि कहीं गलती से उसे चला बैठे तो घोंसला अण्डों समेत उड़ ही जाना था|
कुछ ही दिन बाद अचानक घोंसला, पता नहीं कैसे नीचे आ पड़ा| ओहो! अंडे तो फूट ही गए होंगे, सोच कर हम देखने लपके| वही हुआ था, जिसका अंदेशा था| पर सौभाग्य से एक अंडा सही-सलामत था| घोंसले को उसी स्थान पर रखा और फिर कहीं नीचे आ पड़ा तो ये एक बच्चा-खुचा अंडा भी टूट जायेगा, यही सोच घोंसले को वहीं नीचे ही पड़ा रहने दिया| चिड़िया घोंसले के इर्द-गिर्द मंडराने लगी और दर्दनाक चीं चीं की आवाजें निकाले जा रही थी| हो न हो अंडे टूट जाने का शोक मना रही है शायद| दुख तो हमें भी हुआ| पर क्या करते| मन मसोस कर रह गये|
समय आने पर अंडा फूटा और उसमें से बच्चा निकल आया| चिड़िया वहीं उसका लालन-पालन करने लगी| माँ बाहर से चुग्गा लेकर आती तो बच्चे को पता चल जाता और वो कुछ आवाज निकलते हुए अपना मुँह ऊपर की तरफ कर लेता| माँ अपनी चोंच बच्चे के मुंह में डाल चुग्गा छोड़ देती और बच्चा उसे निगल जाता| देखने लायक नजारा होता था और हम अक्सर इसे देख लुत्फ़ उठाते थे|
बच्चा अब कुछ बड़ा हो गया था| पर अभी उसके पंख उगने शुरू नहीं हुए थे| ऐसे में वो अभी भी मांस का एक लोथड़ा-भर ही लगता था| उस दिन, छुट्टी का दिन था और हम सब ड्राइंग रूम में बैठे अखबार-मैगज़ीन वैगरह पढ़ रहे थे| गर्मी काफी थी| पंखे फुल-स्पीड पर चल रहे थे| चिड़िया बार-बार बाहर जा अपने बच्चे के लिए चुग्गा ला रही थी| जब वो बाहर से आती, हमारी नजरें अनायास उसकी तरफ उठ जातीं और हम उसको चुग्गा खिलाते देखने लगते| मन पुलकित हो उठता| चुग्गा देकर जब वो फुर्र से उड़ बाहर चली जाती तो हम फिर से पढ़ने लगते| अचानक एक कट की सी आवाज से हम चौंक उठे| नजरें आवाज की दिशा में घूम गईं| देखा, चिड़िया फर्श पर पड़ी हुई है| हम समझ गए, कट की आवाज उसके अचानक पंखे से टकरा जाने के कारण आई थी| भाग कर चिड़िया को उठा कर देखा| तेज चलते पंखे की पंखुड़ी से टकराने के कारण वो जख्मी हो गई थी| जख्म काफी गहरा था| तुरंत उसे डॉक्टर के पास ले गए और मरहम-पट्टी करा दी| घर लाकर उसके आगे एक कटोरी में पानी और छोटा सा ब्रेड का टुकड़ा रख दिया| थोड़ी देर पहले चीं-चीं के आवाजों से गुलजार ड्राइंग-रूम में अब चुप्पी सी छाई थी| ना चिड़िया कोई आवाज निकाल रही थी और ना बच्चा ही, जैसे उसे भी हादसे का पता चल गया हो| हम भी ग़मगीन हो चुपचाप बैठे थे| कई बार चिड़िया को पानी पिलाने और ब्रेड खिलाने की कोशिश की, पर उसने चोंच तक ना खोली| बच्चे को तो खैर हम खिलाते ही क्या? देखते-देखते रात हो गई| चिड़िया तब से निढ़ाल ही पड़ी थी| केवल उसकी आँखों की घूम रही पुतलियाँ बता रहीं थीं कि वो जिन्दा है|
रात को हम सो तो गए पर काफी देर तक नींद नहीं आई| यही सोचते रहे कि चिड़िया कब जाकर ठीक होगी? ठीक होगी भी या नहीं? कब उड़ कर बच्चे के लिए चुग्गा लाने में समर्थ हो पायेगी? और कहीं ये ना बची, तो इस बेचारे बच्चे का क्या होगा? क्या भूख से तड़प तड़प कर मर जाएगा? ये ख्याल आते ही मन भर आया |देर रात जाकर कहीं आँख लगी|
सुबह-सुबह चीं चीं की आवाज कानों में पड़ी तो नींद अचानक खुल गई| हड़बड़ा कर उठ बैठा| चिड़िया कुछ ठीक हो गई है शायद| चलो, ये तो अच्छा हुआ, इतना सोच, मैं फिर से सोने का उपक्रम करने लगा| लगातार आती चीं चीं की आवाज से मन में कौतुहल सा जाग उठा और मैं चिड़िया को देखने ड्राइंग-रूम में जा पहुंचा| यह क्या? चिड़िया तो अपने बच्चे से सटी मृतावस्था में पड़ी थी और बच्चा था कि लगातार चींचींं-चींचीं किये जा रहा था| मेरे तो जैसे पैरों से जमीन ही खिसक गई| मन बोझिल हो उठा| सोचने लगा, निढ़ाल चिड़िया बच्चे के पास तक पहुंची कैसे होगी| उसे क्या, कुछ कहा, समझाया होगा| अपने ना बच पाने के बारे में बताया होगा? बच्चे की क्या प्रतिक्रिया रही होगी? इतना छोटा बच्चा, क्या ये सब समझने लायक है भी? माँ की तरफ से कोई प्रत्युत्तर ना पा, बच्चा क्या सोच रहा होगा? क्या वो जान गया है कि उसकी माँ अब जीवित नहीं? अब उसे चुग्गा कौन देगा, क्या ये ऐसा सोच रहा होगा| चिंता सता रही होगी इसे? ऐसे विचारों में खोया मैं काफी देर तक माँ-बच्चे को निहारता रहा| आखिर भारी मन से चिड़िया को वहां से उठाया और बाहर ले जाकर, गढ़ा खोद उसे दफना दिया|
अब इस बच्चे का क्या होगा? ये कैसे जिन्दा रहेगा? चुग्गा कौन देगा इसे? ऐसे तो भूख से मर ही जायेगा| चींचीं की लगातार आती उसकी आवाज कलेजे को अंदर तक हिला रही थी| माँ की मौत का मातम मना रहा है या भूख से बिलबिला कर चींचीं किये जा रहा है, मैं मन ही मन सोचने लगा| अब कुछ ना कुछ तो करना होगा| बच्चे की करुण पुकार से मन द्रवित हो उठा| आँखें भी नम हो आईं| अचानक विचार आया, क्यों ना ब्रेड के टुकड़े को महीन पीस कर इसके मुंह में थोड़ा-थोड़ा डाला जाए, बिल्कुल उसी तरह जैंसे इसकी मां इसे चुग्गा खिलाती थी|शायद खा ही ले| और सचमुच बच्चे ने खा लिया| चींचीं की आवाज आनी भी बंद हो गई| जैसे उसकी भूख शांत हो गई थी| हमें भी सकून मिला|
इस तरह सिलसिला चल निकला| दिन गुजरने लगे| अब ब्रेड के साथ साथ गेहूं, बाजरा, ज्वार मक्का इत्यादि की रोटी के महीन टुकड़े तो कभी इन सब का गूंथा आटा भी देने लगे| अगले कुछ दिनों में ही उसके पंख उगने शुरू हो गए| फिर वो दिन भी आ पहुंचा जब वह थोड़ा-बहुत उड़कर इधर-उधर फुदकने लगा| उसे बाल-सुलभ क्रियाएँ करते देख हम खुश होते| हमारे लिए ये एक जीता-जागता खिलौना बन गया था जिससे हम जब तब खेलने लगे|
समय के साथ बड़ी हो वो पूर्ण चिड़िया बन उड़ने लगी| पूरे घर में उड़ती, इठलाती, फुदकती फिरती| कोई झिझक नहीं, डर नहीं| चिंचिया कर साधिकार अपना खाना मांगती और खाती| कहीं अपनी माँ की तरह चलते पंखे से टकरा कर ये भी घायल ना हो जाए, इसलिए पंखे बंद ही रखते, चाहे गर्मी कितनी भी क्यों ना पड़ रही हो| हम जहां भी बैठे होते थे, वो वहीं उड़ कर आ जाती थी और हमारे आस-पास ही मंडराती रहती थी| अत: पंखों को चलाना खतरे से खाली नहीं था| एक तरह से अब तो वो हमारे परिवार की सदस्या ही बन चुकी थी| उसकी देख भाल अब हमारी दिनचर्या का एक अपरिहार्य हिस्सा बन चुकी थी| शुरू-शुरू में तो खाना भी केवल मेरे ही हाथ से लेकर खाती थी पर मेरे ज्यादातर समय दफ्तर में रहने के कारण, धीरे-धीरे घर के अन्य लोगों से भी लेकर खाने लगी| पर कोई और बाहर का, खिलाने की कोशिश करता तो हरगिज़ ना खाती| हमारा कहीं बाहर जाना भी लगभग बंद हो गया था| जाना पड़ता भी तो सब इकट्ठे नहीं जाते| आखिर किसके भरोसे छोड़ कर जाते इसे? साथ तो ले जा नहीं सकते थे| चिड़िया की सुविधा को ध्यान में रख कर ही अब सब प्रोग्राम तय किये जाने लगे|
मैं दफ्तर के लिए निकलता तो उसे पता चल जाता| उड़ कर कंधे पर आ बैठती| मैं उसे हाथ में ले लेता| वो हल्के से मेरी हथेली पर अपनी चोंच मारने लगती| शायद प्यार प्रदर्शित करने का ये उसका अपना तरीका था| जिस भी समय दफ्तर से लौटता तो ना जाने उसे कैसे पता चल जाता था| अभी मैं बाहरी दरवाजे पर ही होता था कि वो चींचीं करती, फुर्र से उड़ती आ जाती और मेरी छाती पर चढ़ चोंच मारने लगती, शायद जैसे कह रही हो कि 'इतनी देर क्यों कर दी, कब से राह देख रही हूँ,ये रोज-रोज कहाँ चले जाते हो मुझे छोड़ कर'| घर में बैठा होता तो अक्सर उड़ कर मेरे सिर आ बैठती और मेरे बालों में ऐसे खेलने लगती जैसे अपने घोंसले में लोट-पोट हो रही हो| बाँहों पर, कन्धों से कलाई तक कुछ यूँ फुदक-फुदक कर चलती जैसे वृक्ष की टहनियों पर सैर कर रही हो| बाएं हाथ की हथेली पर उसे बैठा जब मैं दायें हाथ की उँगलियों से उसे प्यार से सहलाता तो वो अपनी आँखें बंद कर बैठी रहती, जैसे उसे माँ के ही स्पर्श का एहसास हो रहा हो| खेलने का मूड होता तो मेरी हथेली पर चोंच मारने लगती| मैं समझ जाता| अंगूठे और ऊँगली के किनारों को मिला एक सूराख सा बना देता और वो उस में से बार-बार आर-पार होकर बेहद खुश होती, जैसे घोंसले के बाहर-अंदर, जा-आ रही हो| लेटा होता, तो पैरों से सिर तक पूरे शरीर पर ऐसे फुदकती, उड़ती फिरती, जैसे किसी पेड़ पर विचरण कर रही हो| वो कब क्या चाहती है, उसके सब इशारे हम समझने लगे थे| अब तो उसकी ख़ुशी ही हमारी ख़ुशी थी| रात होते ही वो डाइनिंग-टेबल पर जा सोती और सुबह सवेरे ही चींचीं-चींचीं करते हुए सिर पर आ बैठती| चोंच मार-मार कर उठा ही देती| घडी में अलार्म लगा कर सोने की अब जरूरत ही नहीं रही थी|
आस-पड़ोस में तो सब जान ही गए थे, रिश्तेदारों तक को हमारे इस अनोखे से चिड़िया-प्रेम की खबर लग चुकी थी| वो लोग भी जब तब फ़ोन पर चिड़िया का हाल-चाल पूछते रहते| मैं दफ्तर से भी फ़ोन पर उसकी खोज-खबर लेता ही रहता| वहां भी सब संगी-साथियों को मालूम पड़ चुका था| वे लोग भी चिड़िया का हाल जानने को उत्सुक रहते| सभी अब उसे हमारे परिवार का सदस्य मानने-समझने लगे थे| एक कान से दूसरे कान, एक मुंह से दुसरे मुंह होती ये बात फैलने लगी और लोग जिज्ञाषा-वश इस सब का प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन करने आने लगे| कुछ रिश्तेदार भी ख़ास तौर से इस अनूठे-प्रेम को अपनी आँखों से देखने आये| कइयों को हमारा ये चिड़िया-प्रेम और उसे घर में ही बंद रखना काफी अखर गया और चिड़िया को फ़ौरन चिड़ियों के झुण्ड में छोड़ देने को कहा| पर हम परिवार के एक सदस्य को भला घर से कैसे निकाल बाहर करते|
एक दिन घर के आँगन में हम सब बैठे थे और चिड़िया मेरे सिर पर अठखेलियां कर रही थी| तभी सामने पार्क में चिड़ियों का एक झुंड दाने चुगने उतरा| थोड़ी सी आहट होते ही पूरा झुंड तुरंत उड़ जाता और कुछ देर बाद फिर से आ दाने चुगने लगता| अचानक मेरे मन में ख्याल आया कि चिड़ियों के झुण्ड को देख, मेरी चिड़िया भी कहीं उड़ कर उनमें शामिल तो नहीं हो जाएगी| पर मैं हैरान रह गया, जब देखा कि चिड़िया ने उस झुंड की तरफ जाने की कोई कोशिश ही नहीं की| उस तरफ ध्यान तक नहीं दिया| मेरे साथ ही खेलने में मस्त रही| मेरे मन में कौतुहल जाग उठा| तरह तरह के विचार आने लगे| सोचने लगा, ये चिड़ियों के झुण्ड की तरफ आकर्षित क्यों नहीं हुई? तो क्या ये अपनी जिंदगी इसी घर की चार-दीवारी में हमीं से खेलते-खेलते गुजार देगी? ये तो एक चिड़िया का जीवन नहीं है| हम तो इसके साथ खेल सकते हैं, खिला-पिला सकते हैं, पर इसके आलावा भी तो इसकी जरूरतें हैं| आज तक इसने किसी कीड़े-मकोड़े का स्वाद तक नहीं चखा, जो चिड़ियों का एक पसंदीदा भोजन है| ये भी अपना घोंसला बनाये| इसके भी बच्चे हों| ये भी खुले आकाश में उन्मुक्त उड़े, तैरे| पेड़ो पर विचरण करे| दाना-दुनका चुगे| अपने पसंदीदा भोजन का स्वाद ले| यहाँ भला इसे ये सब कहाँ मिलने वाला है? सच ही तो है, किसी भी जीव को उसके नैसर्गिक जीवन से महरूम रखना उसे जीते-जी ही मार देने के समान है| सर्वथा अन्याय है| एक घोर पाप है| इसे चिड़ियों के झुण्ड में अब छोड़ देना ही मुनासिब होगा| ये बात मेरे मन में घर कर गई, और मैंने अपनी चिड़िया को छोड़ ही आने का फैसला मन ही मन ले लिया| अपने मन की बात जब सब से साझा की तो घर वालों ने भी समर्थन ही किया|
अगले ही दिन, दिल पर पत्थर रख मैं इसे चिड़ियों के झुण्ड में छोड़ने पहुंचा| झुण्ड के काफी करीब गया तो मुझे देख चिड़ियाँ कहीं उड़ ही ना जाये, ये सोच, कुछ दूर ही छोड़ देना उचित जान पड़ा| मैंने कंधे से उतार प्यार से पुचकारा, सहलाया और फिर अपने दोनों हाथों में ले चिड़िया को झुण्ड की तरफ उछाल दिया| मुझे उम्मीद थी कि उड़ कर ये झुण्ड में शामिल हो जाएगी| चिड़िया उड़ गई और मैं भारी मन से लौट पड़ा| अभी कुछ ही कदम चला था कि मुझे अपने सिर पर चिड़िया के बैठे होने का एहसास हुआ| देखा तो चिड़िया ही थी| मन तो पहले ही से भारी था अब उसे देख आँखें भी भर आईं| वहीँ बैठ कुछ देर तक उससे खेलता रहा| जी कड़ा कर फिर से छोड़ने गया| इस बार भी बिल्कुल वैसा ही हुआ| तीसरी बार मैं पलटा ही नहीं| वहीं खड़ा रह गया| वो मेरे पास ना आ झुण्ड के आसपास मंडराती रही पर झुण्ड से रही अलग थलग ही| अच्छा ख़ासा वक़्त गुजर जाने के बाद मैंने लौटने की सोची| ज्यों ही मैं पलटा, वो फुर्र से उड़ती हुई मेरे सिर पर आ बैठी| उस दिन मेरी तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं, और मुझे उसको साथ लेकर ही वापिस घर लौटना पड़ा| पूरे रास्ते चिड़िया मेरे कंधे पर चोंच पर चोंच मारती रही, जैसे उसे सब प्लान का पता चल चुका हो, और वो ऐसा कर अपनी नाराजगी जता रही हो| घर वालों के ग़मगीन चेहरे उसे देख एकाएक खिल से गए| पर वो हैरान थे और चिड़िया को ना छोड़ आने का कारण जानने को आतुर हो उठे थे| जब मैंने सब वृतांत कह सुनाया तो उनके मुंह खुले के खुले रह गये| तब तक आस-पड़ोस में बात फैल चुकी थी| जिस-जिस ने सुना, अपने दांतों तले ऊँगली दबा ली| लोग आ आ कर अपने सुझाव देने लगे| आखिर तय हुआ कि कहीं दूर जंगल में जाकर चिड़िया को छोड़, तुरंत कार में बैठ लौटा जाए| रात भर मैं सो नहीं पाया| विचारों में ही खोया रहा| क्या इस तरह से छोड़ आना, पीछा छुड़ाना नहीं? भला क्या कोई अपने बच्चे के साथ ऐसा सलूक करता है? आखिर वो इस घर का बच्ची ही तो है| यहीं पैदा हुई, पली-बढ़ी| मेरे बस में होता तो उसका ब्याह रचाता और धूम धाम से विदा करता| पर अपने इस बच्चे की खुशियों को ध्यान में रखते हुए इसे जंगल में छोड़ आना ही श्रेयष्कर है|
सुबह-सवेरे हमेशा की तरह वो मेरे शरीर पर अठखेलियां कर रही थी| उसे क्या पता था कि बस थोड़ी ही देर में उसे ले जाकर जंगल में छोड़ दिया जायेगा| पर मुझे तो पता था| मैं उससे नजरें नहीं मिला पा रहा था| अनमने मन से उसे लेकर मैं कार में बैठा| जब छोड़ कर वापिस कार में ही लौटना है तो चिड़िया को दूर जंगल में ले जाकर छोड़ने की क्या जरूरत है| जहाँ भी बहुत सी चिड़ियाँ दिखाई देंगी, वहींं छोड़ देंगे| यही सोच, चलती कार में इधर-उधर देखने लगा| एक जगह चिड़ियों की चहचहाहट सुन, कार रुकवाई| अपनी चिड़िया को आख़री बार दुलारा और उसे उड़ा दिया| तुरंत कार में आ बैठा और कार तेजी से चल दी| कार की खिड़कियों के शीशे बंद कर लिए ताकि वो पीछा करे भी तो कार के अंदर ना आ सके| काफी दूर निकल आने के बाद मैंने कार रूकवाई, और बाहर निकला| मैं जानने को उत्सुक था कि कहीं चिड़िया पीछे-पीछे उड़ती आ तो नहीं रही| पर इस बार वो नहीं आ पाई थी| तरकीब तो काम कर गई थी, पर मैं मायूस हो गया|
घर आकर, चुपचाप एक कोने में बैठ गया| रूलाई फूटने से अपने आपको बड़ी मुश्किल से रोके हुए था| घर वाले समझ गए कि चिड़िया को छोड़ आया हूँ| वो भी चुपचाप थे| चिड़िया की चहचहाहट से हर वक़्त गुलजार रहने वाले घर में सन्नाटा सा पसरा था| ऐसा माहौल बन गया था जैसे अभी अभी लड़की को ससुराल विदा करके आये हों|
कई दिनों तक ना किसी को खाना अच्छा लगा और न किसी का काम में ही जी लगा| एक खालीपन सा महसूस होता रहा, सालता रहा| बहुत दिनों तक मुझे यही आभास होता रहा कि वो अभी फुर्र से उड़ती मेरे सिर पर आ बैठेगी और वैसी अठखेलियां करने लगेगी, जिसका मैं अभ्यस्त हो चुका था| मैं आँगन में जा बैठता, बाहर सड़क पर चक्कर लगाता रहता, इसी आशा और इन्तजार में कि शायद मुझे देख, पहचान जाये और वो लौट आये| कई बार उसी रास्ते से, उस जगह तक भी घूम आया जहाँ चिड़िया को जाकर छोड़ा था| चीं-चीं की आवाज कानो में पड़ते ही भाग कर बाहर जा खड़ा होता|
अब भी जहाँ चिड़ियों का झुण्ड दिखाई देता है तो मुझे लगने लगता है वो इसी झुण्ड में ही होगी और अभी उड़ती हुई मेरे सिर पर आ बैठेगी| वहीं कुछ देर ठहर इन्तजार करता हूँ| मन में कई तरह की विचार आते रहते हैं कि वो कैसी होगी? क्या झुण्ड में शामिल हो पाई होगी? कहीं दूसरी चिड़ियों ने उसे दुत्कार कर भगा तो नहीं दिया होगा? वो बिल्कुल अकेली तो नहीं पड़ गई होगी? दिल लग गया होगा उसका? दाना वगैरा चुगना सीख तो गई होगी? क्या उसने अपना घोंसला बनाया होगा? बच्चे हुए होंगे? क्या हमें याद करती होगी? क्या अपने बच्चों को भी हमारे बारे में बताया होगा? कहीं नाराज तो नहीं है, यूँ धोखे से छोड़ जाने पर? कोशिश की होगी क्या लौटने की? हो सकता है की हो कोशिश, पर पहुँच ही न पाई हो घर तक? छोड़ा भी तो बहुत दूर जाकर था| घर के बाहर निकली तो थी नहीं कभी| एक महानगर में, रास्तों से बिल्कुल अनजान, घर को ढूंढ ही ना पाई हो|
एक अफ़सोस आज तक है- कि काश अपनी चिड़िया को छोड़ आने से पहले कोई निशानी तो लगा देता| वो मुझे भूल भी गई हो तो कोई बात नहीं, मैं तो उसे पहचान लेता| अपनों में उड़ते-खेलते उसे देख, मेरे मन को तसल्ली तो हो जाती| खुश तो हो लेता ये सब अपनी आँखों से देख कर| उसका हाल-चाल जानने की वैसी ही उत्कंठा व् जिज्ञासा रहती है जैसे अपनी लड़की की उसके ससुराल में| यही कामना करता रहता हूँ, कि वो जहां भी हो ,सुखी हो| आखिर, वो भी तो इसी घर में पैदा हुई,पली-बढ़ी और विदा की गई थी| ये उसका मायका ही तो है| हर लड़की को मायके से लगाव होता है| उसे भी जरूर होगा| आएगी किसी न किसी दिन, बच्चों को दिखाने उनकी ननिहाल| बेसब्री से इन्तजार है, मुझे उस दिन का|