सार्थक संध्या नहीं थी आज की ,
बेपरों चर्चा रही परवाज़ की ।
थे वही क्यों थे मगर बातें हुईं ,
कुछ अदीबों के अलग अंदाज़ की ।
शब्द - साहूकार ही कहिए उन्हें ,
मूल से ज़्यादा हवस है ब्याज की ।
शोर से ज़्यादा कहें भी क्या उसे ,
व्यर्थ हो आवाज़ जिस आवाज़ की ।
क्या करें बहसों का ऐसी क्या करें ,
कोढ़ में मौजूदगी ज्यों खाज की ।