नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने फिर दोहराया है कि न्यायिक फैसले को मौलिक अधिकार में बाधक मानते हुए चुनौती नहीं दी जा सकती। शीर्ष कोर्ट ने कहा, पहले एक मामले की सुनवाई के दौरान शीर्ष कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उपयुक्त न्यायाधिकार वाले किसी जज के सामने सुनवाई के लिए पेश मामले में न्यायाधीश की ओर से सुनाया गया न्यायिक फैसला मौलिक अधिकारों में बाधक नहीं होता है।
जस्टिस दीपांकर दत्ता व जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने हाल में एक मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से दायर आपराधिक अपील पर तेजी से फैसला करने के लिए उच्च न्यायालय को निर्देश देने से इन्कार करते हुए यह टिप्पणी की। याचिकाकर्ता ने अपील की सुनवाई में देरी से व्यथित होकर संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत यह रिट याचिका दायर की है।
अदालत ने कहा कि मामले को सूचीबद्ध करने के संबंध में उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत दायर रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं है। पीठ ने कहा, यदि उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता की आपराधिक अपील (2016 में दायर) को जल्दी सुनवाई के लिए प्राथमिकता नहीं दी है, भले ही किसी भी कारण से हो, यह न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है और अनुच्छेद-21 (जीवन की सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार) के उल्लंघन का हवाला देते हुए अनुच्छेद-32 के तहत रिट याचिका नहीं दायर की जा सकती।
पीठ ने कहा, यदि याचिकाकर्ता अपनी अपील लंबित रहने तक जमानत पर रिहा होना चाहता है तो उसे रिट याचिका के बदले अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा-389 (1) के तहत आवेदन करना चाहिए। अदालत ने रिट याचिका को गलत अवधारणा मानते हुए खारिज कर दिया।
हाईकोर्ट की निगरानी की शक्ति शीर्ष कोर्ट के पास नहीं
याचिकाकर्ता की रिट याचिका को खारिज करते हुए पीठ ने कहा, संविधान के भाग-5 (संघ) के तहत अध्याय-4 (शीर्ष केंद्रीय न्यायपालिका) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो संविधान के अनुच्छेद-227 (उच्च न्यायालय द्वारा सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति) के समान हो। दूसरे शब्दों में शीर्ष कोर्ट को हाईकोर्टों के अधीक्षण या निगरानी की शक्ति नहीं है। हमारी सांविधानिक योजना में दो संस्थाओं (उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों) के बीच क्षेत्राधिकार का स्पष्ट विभाजन है और दोनों संस्थाओं को एक दूसरे के लिए परस्पर सम्मान की आवश्यकता है।