ले लूँ फिर संकेत तरंगित सागर के उच्छवास से ।
पाऊँ फिर संदेश झुरमुटों में भटके वातास से ।
किया उपेक्षित जग ने इतना होने गीत विलीन लगे ।
क्रंदन रुदन रचे कविता ने नव स्वर होने हीन लगे ।
कैसे प्रतिध्वनि अब लौटे गुंजित हो आकाश से ।
प्राण पखेरू सहम सूखते कठिन समय का वार है ।
कल कल बहती सरिताओं की सूख चली रसधार है ।
कैसे होगा निस्तारण इस व्याप्त रहे संत्रास से ।
जब अवगुंठन स्वप्न उठाते निद्रा रूठ-रूठ जाती ।
यदि आशा का तप मैं ठानूँ तन्द्रा टूट-टूट जाती ।
मेरा स्वत्व तुम्हीं से जाग्रत आलोकित उद्भास से ।
बांहों में कैसे बाँधू मैं सुरभित मलय समीर को ।
शब्दों में कैसे बो दूँ मैं अपनी अंतस पीर को ।
साधों के विस्तार संकुचित होते कुछ मधुमास से ।
गीतों का मकरंद छंद है इसे न विस्मृत कर पाऊँ ।
नई कल्पना नये भाव से गीत अलंकृत कर जाऊँ ।
बहे काव्य की गंगा-यमुना नित नूतन आभास से ।